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रसप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४५३
घी, शहद, गूगल, गुंजा और सुहागा; इन पारद और अभ्रकसत्व १-१ भाग तथा शुद्ध पांचोंके योगको 'मित्रपंचक' कहते हैं । मित्र | गंधक २ भाग लेकर प्रथम पारे और सत्वको खरल पंचकके साथ मिलाकर एकाधिक धातुओंको अंगारों | करें। जब दोनों मिल जाएं तो उसमें गंधक ( कोयलों )की तीब्राग्नि पर धमाने से वे परस्पर मिलाकर कजली बनावें । इसे घृतकुमारीके रस में मिलकर एक हो जाती हैं। मित्रपंचक सातों धातु- घोटकर सुखाकर ( आतशी शीशी में डालकर ) ओंको मिलाकर एक कर देता है।
२ दिन बालुकायन्त्रमें पकावें । इससे अभ्रकसत्वकी
। भस्म हो जाती है। अभ्रकसत्व शीतल, त्रिदोषनाशक, रसायन,
___ यह भस्म क्षय, शोष, कास, प्रमेह, पाण्डु विशेषतः पुंस्त्व वर्द्धक और आयुको स्थिर करनेवाला
और कृशता को शीघ्र ही नष्ट कर देती है *। है। इसके समान पुंस्त्व शक्ति वर्द्धक अन्य एकभी औषध नहीं है।
___ (८९७७) अभ्रकसत्व-शोधनम् (८९७५) अभ्रकसत्वपातनम् । ( आ. वे. प्र. । अ. ४ ; रसे. चि. म. । अ. ४) ( र. र. स. । पू. अ. २; र. प्र. सु. । अ. ५) अयोवच्छोधनं तस्य मारणं तद्वदेव तु। पादांशटणापेतं मुशलीपरिमर्दितम् । । रुन्ध्यात्कोष्ठयां दृढं ध्मातं सत्त्वरूपं भवेद्धनम् ॥
अभ्रकसत्वका शोधन मारण लोहके समान अभ्रकमें चौथा भाग सुहागा मिलाकर मूसलीके ! करना चाहिय । रसमें खरल करें और उसे मूषामें बन्द करके *अभ्रकसत्वके अन्य गुण तीब्राग्नि में रखकर ध्मावें। इससे अभ्रकका सत्व
(र. प्र. सु. । अ. ५) निकल आता है। अभ्रकसत्वपातनम्
मृतं सत्वं हरेन्मृत्युं सर्वरोगविनाशनम् । ( शा. सं. । खं. २ अ. ११)
क्षयं पाण्डु ग्रहणिकां श्वासं शूलं सकामळम् ॥ प्र. सं. ३०१ देखिये
ज्वरान्मेहांश्च कासांश्च गुल्मान् पश्चविधानपि।
मन्दाग्निमुदराण्येवमीसि विविधानि च ॥ (८९७६) अभ्रकसत्वमारणम् (र. रा. सु.)
अनुपानप्रयोगेण सर्वरोगानिहन्ति च । सूततुल्यं व्योमसत्वं तयोस्तुल्यं च गन्धकम् । अभ्रकसत्व की भस्म समस्त रोगोंका नाश कुमारीस्वरसैमधे यन्त्रे सैकतके पचेत् ॥ करके मृत्युको भी जीत लेती है। यह क्षय, पाण्डु, दिनद्वयान्ते समाद्यं भक्षयेन्मासपात्रकम् । ग्रहणी, श्वास, शूल, कामला, ज्वर, प्रमेह, खांसी, क्षयं शोषं तथा कासं प्रमेहं चापि दुस्तरम् । । ५ प्रकारका गुल्म, अग्निमांद्य, उदररोग, अर्श, और पाण्डुरोगं च काय च जयेच्छीघ्रं न संशयः॥ अनुपान भेद से समस्त रोगोंको नष्ट करती है।
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