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४५४ भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि (८९७८) अमर कलानिधि रमः भावयेच त्रिफलाकन्यका । (र. प्र. सु. । अ. ८ , र. चं.)
वन्हिशिग्रुजरसैश्च सप्तधा ॥ मुक्ताफलं विद्रुमकं रसेन्द्र
जायते इह रसोऽमृतश्रवा । गन्धं समांशानि ततो विदध्यात् ।
शुष्कपाण्डुविनिवृत्तिदायकः ॥ नदीजपरस्य रसेन मर्दितं
द्रामयुग्मपरिमाणतस्त्विमं । गोलं हि कृत्वा वसनेन वेष्टयेत् ॥ __ लेहयेत घृतमाक्षिकान्वितम् ।। मृदासलिप्त परिशोषितं च
पथ्यमत्र परिभावितं पुरा। तच्छरावके सम्पुटयेच्च वहौ।
___ यत्तदेव विवय॑वर्जितम् ॥ चूर्णीकृतं वल्लमितं च भक्षित
शोफपाण्डुविनिवृत्तिदो भवेत् । स्याद्रोगराजस्य निकृन्तनं हि ॥
सेवितस्तु यवबिम्बिकाद्रवैः ॥ मोती भस्म, प्रवाल भस्म,' शुद्ध पारद और
नागराहजयपालकैः समं । शुद्ध गंधक समान भाग लेकर प्रथम पारे गंधककी
वचिदुग्धपचितेन सर्पिषा ।।
तक्रभक्तमिह भोजयेदिति । कजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियां मिलाकर जंबीरी नीबूके रसमें घोट कर सबका एक
स्निग्धमन्नमतिनूतनं त्यजेत् ॥ गोला बनावें और उसे कपड़ेमें लपेटकर उस पर
अभ्रक भस्म १ भाग, पारद भस्म २ भाग,
शुद्ध गंधक ३ भाग, लोहभस्म ४ भाग और मूसली मिट्टीका लेप करदें तथा (सुखाकर) शराव स-पुटमें
५ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करें और फिर बन्द करके पुट लगादें। तदनन्तर उसके स्वांग
१-१ दिन सेंमलकी जड़के रस तथा गिलोयके शीतल होने पर औषधको निकालकर पीस लें।
क्याथ में घोटें एवं त्रिफलाके क्वाथ, अद्रकके रस, • मात्रा-२ रत्तो।
घृतकुमारीके रस, चीतामूलके क्वाथ और सहजनेकी यह रस राजयक्ष्माको नष्ट करता है। छालके रसकी ७-७ भावना दें।
इसके सेवनसे शुष्क पाण्डुका नाश होता है। (८९७९) अमृतश्रवा रसः
मात्रा-२ द्राम (र. चं.। पाण्डा.)
इसे घी और शहदके साथ सेवन करना चाहिये। अभ्रभस्म रसभस्म गन्धकं ।
जौके काथ और कन्दूरीके रसके साथ सेवन लोहभस्म मुसली विदृद्धितः ॥
करनेसे यह शोथ और पाण्डुको नष्ट करता है। शाल्मलीजरसतो गुडूचिका-।
इसे खानेके पश्चात् सोंठ, जमालगोटा और कायतश्च परिमर्दयेदिनम् ॥
सेहुंड (थूहर)के दूधके साथ सिद्ध घृत पीना चाहिये।
पथ्य-तक भात । अपथ्य- स्निग्ध पदार्थ ? र. चं. में विद्रुम का अभाव है । और नवीन अन्न ।
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