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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ अकारादि
गुल्म, वातरक्त, प्लीहोदर, विद्रधि, गृध्रसि, इन्द्रियोंकी गिरे । इस तेलके कानमें जानेसे कर्ण पीला शीघ्रही क्षीणता, शुक्रक्षय, नपुंस्कता, भूतोन्माद, योनिरोग बन्द हो जाती है।
और बन्ध्यत्व आदि रोगोंको नष्ट करता है । इसके (८८६९) अस्मार्थ सैलम् सेवनसे पुत्र प्राप्ति होती है।
(ग. नि. । तैला. २) (८८६८) अश्वत्थपत्र तैलम्
असन्सारका दिनाचित (वृ. मा. ; व. से. । कर्णरोगा.
त्रिफलया मधुकेन च संयुतम् । वृ. यो. त. । त. १२९) भवति नावनतैलमनुत्तम अश्वत्थपत्रखल्लं वा विधाय बहुपत्रकम् । पलितनेत्रविकाररुजापहम् ॥ तैलाक्तमङ्गारपूर्ण निदध्याच्छ्वणोपरि ॥ असना वृक्षके सारके क्वाथ और त्रिफला यत्तैलं च्यवते तस्मात्खल्लादङ्गारतापितात् । तथा मुलैठीके कल्कके साथ सिद्ध तैलकी नस्य तत्माप्तं श्रवणस्रोतः सद्यो गृह्णाति वेदनाम् ॥ लेनेसे पलित और नेत्रविकार तथा नेत्रपीडाका ___ पीपलके हरे पत्तोंको तेल लगाकर ऊपर नीचे | नाश होता है। रखकर उसका खरलसा बनावें और उसमें अंगारे (असना वृक्षका सार २ सेर, पानी १६ भरकर उसे कानके छिद्रसे जरा ऊपर इस प्रकार सेर, पकाकर ४ सेर रक्खें। तिल तेल १ सेर, रखें कि उससे जो तेल टपके वह कानके भीतर कल्क १० तोले ।)
इत्यकारादितैल-प्रकरणम्
अथाकारादिलेपप्रकरणम् (८८७०) अगस्त्यादिलेपः । (अगथियाके फूलोंका चूर्ण २० तोले, दूध (वृ. मा. । वातरक्ता.)
२ सेर, पानी ८ सेर । मिलाकर पानी जलने तक
पकावें।) अगस्तिपुष्पचूर्णेन साधि नदिपीपयः ।
___ (८८७१) अङ्कोलबीजादिलेपः तदुत्थनवनीताक्तं वातासृक्महवं जयेत् ॥
(वै. म. र. । पट. १७) अगथियाके फूलोंके चूर्णके साथ भैसका दूध, अकोलजातानि बीजानि पिष्ट्वा यः सिद्ध करें और उसका दही जमाकर धी निकाल ले। काकमाचीरसेनैव लिम्पेत ।
यह घी लगानेसे प्रबल वातरक्त नष्ट हो कण्डूतिमिच्छन् विजेतुं मनुष्यस्ता जाता है।
चापि जित्वा सुवर्ण लभेत ॥
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