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भारत - भैषज्य रत्नाकर
(६६)
यह तेल त्रिदोष नाशक और इन्द्रिय-बलवर्द्धक है । इसे यथाकाले सेवन करने से शास्त्रोक्त प्राप्त होते हैं ।
१ वर्षे वर्षेऽणुतैलं च कालेषु त्रिषुमाचरेत् । प्रावृट्शरद्वसन्तेषु गतमेघे नभस्तले ॥
प्रतिवर्ष प्रावृट ( आषाढ श्रावण) शरद (कार्तिक मार्गशीर्ष) और वसन्त (फालगुन, चैत्र) इन तीन ऋतुमें जब बादल आदि न हों तब भणु तैलका नस्य लेना चाहिये ।
२ नस्यकर्म यथाकालं यो यथोक्तं निषेवते । न तस्य चक्षुर्न घ्राणं न श्रोत्रमुपहन्यते ॥ न स्युः श्वेतान कपिलाः केशाः इमधूणिवा पुनः । न च केशाः प्रलुप्यन्ते वर्द्धन्ते च विशेषतः ॥ मन्यास्तम्भः शिरः शूलमदितं हनुसंग्रहः । पीनसाद्धविमेदौ च शिरः कम्पञ्च शाम्यति ॥ सिराः शिरः कपालानां सन्धय स्नायु कण्डराः । नावनप्रीणिताश्चास्य लभन्तेऽभ्यधिकं बलम् ॥ मुखं प्रसन्नोपचितं स्वरः स्निग्धः स्थिरो महान् सर्वेन्द्रियाणां वैमल्यं बलं भवति चाधिकम् ॥ न चास्य रोगा सहसा प्रभवन्त्यूर्द्धजत्रुजा । जीर्यतश्चोत्तमाङ्गे च जरा न लभते बलम् ॥
यथोक कालमें अणु तेलका नस्य लेने से आंख, नाक और कानों की शक्ति क्षीण नहीं होती, शिर और दाढी मूछके बाल श्वेत या कपिल नहीं होते । बाल विशेष रुप से बढते हैं और गिरते नहीं । मन्यास्तम्भ, शिरशूल, अर्दित, हनुग्रह, पीनस, आधासीसी, सिरका कांपना आदि रोग शान्त होते हैं । नस्यकर्मके द्वारा तर्पित होने से शिर और कपाल की शिराएं, कण्डराएं तथा संधियां अधिक दृढ होती हैं। मुख प्रसन्न और पुढ होता है । स्वर मधुर, गम्भीर और तेज होता है। समस्त इन्द्रियां बलवान एवं निर्मक होती हैं। ऊर्द्धजगत (गलेसे ऊपर के ) रोगों के आक्रमण से रक्षा होती हैं तथा वृद्धावस्था जाने पर भी बलीपलित आदि | वृद्धावस्था लक्षण अधिक नहीं होते ।
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[१८१] अपामार्ग क्षार तैलम् (भै. र. । कर्णरोगा . ) मार्गक्षारजलेन च तत्कृतकल्केन साधितन्तैलम् अपहरति कर्णनादं वाधिर्यं चापि पूरणतः ॥
अपामार्ग के क्षारके जल और उसी के कल्क से सिद्ध किया हुवा तेल मन्दोष्ण कानमें डालने से कर्णनाद और बहिरापन का नाश होता है ।
टिप्पणी- जिन तेलों में क्षार पडते हैं उन्हें बहुत बडे पात्रमें पकाना चाहिए क्योंकि क्षारके कारण फेन बहुत अधिक आते हैं और तेल बहार निकल जानेका भय रहता है । जब तेलमें फटे हुवे दूध के समान छिछड़े से दीखने लगें तब उसे सिद्ध समझना चाहिए । क्षार सिद्ध तेल पाककी परीक्षा है ।
[१८२] अमृतादि तैलम् (१)
(च. सं. । चि. अ. २८ वा. व्या.) तुलाः पञ्च गुडूच्यास्तु द्रोणेष्वष्टास्वपां पचेत् । पादशेषे समं क्षीरं तैलस्य द्वाढकं पचेत् ॥ एलामांसीन तोशी रशारिवाकुष्टचन्दनैः । शतपुष्पा चला मेदामहामेदधिजीव कैः । काकोलीक्षीरकाकोली श्रावण्यतिबलानखैः । महाश्रावणिजीवन्तीविदारीकपिकच्छुभिः ॥ शतावरी तामलकी कर्कटाख्याहरेणुभिः ।
गोक्षुर कैरण्डरानाकालासहाचरैः ॥ वीराशल्लकि मुस्तत्वक्पत्रर्षभकवालकैः । मञ्जिष्ठायास्त्रिकर्षेण मधुकाष्टपलेन च ॥ कल्कैस्तत क्षीणवीर्याग्निवलसंमूढचेतसः । उन्मादारत्यपस्मारैरार्तश्व प्रकृतिं नयेत् ॥ वातव्याधिहरं श्रेष्ठं तैलाग्रथममृताह्रयम् । कृष्णात्रयेण गुरुणा भाषितं वैद्य पूजितम् ॥
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