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आकारादि-घृत
(१४७)
जब बायबिडंग उसीज जाय (स्विन्न हो जाय) | उन्हें भी उपरोक्त विधि से दूर कर देना चाहिये ।
और सब पानी जल जाय तो उसे नीचे उतार कर | चौथे मास में दांत, नख और केशादि गिरने शिलापर पीसें और फिर उसमें शहद और पानी | लगेंगे । फिर पांचवें महीने में शुभ लक्षण प्रकट (बायबिडंगका कषाय) मिलाकर लोहेके मज़बूत
होंगे । इसके पश्चात् शरीर सूर्य के समान अपूर्व घड़ेमें भरकर बन्द करके राख के ढेरमें दबा दें
तेजोमय हो जायगा । श्रवण शक्ति तथा नेत्र ज्योति और बरसात भर वहीं दबा रहने दें। फिर उसे
अत्यन्त तीव्र हो जायगी। वह मनुष्य तमो गुण बरसात के ४ महीने बीत जाने पर निकाल कर विरेचनादि के द्वारा शरीर शुद्धि करने के बाद
और रजोगुण दूर हो जाने के कारण केवल सतोसहस्त्र आहुतियों से हवन करके यथा बल प्रातः
गुणी हो जायगा । इस प्रयोगका प्रयोगी अपूर्व काल सेवन करें और औषधि पच जाने पर मूंग
| वेदवक्ता, हाथी के समान बलवान, घोड़े के समान तथा आमले के अलूने (लवण-रहित) किश्चित
शीघ्रगामी एवं यौवन संपन्न होकर ८०० वर्ष पर्यन्त घृतयुक्त यूषके साथ घृतयुक्त भात खाएं । एवं
जीवित रह सकता है । उस मनुष्य को अणुतैल रेतीमें सोया करें । इस प्रयोग से १ मास पश्चात्
की मालिश, अजकर्ग (पलाश भेद) के कषाय-कल्क शरीर से कृमि निकलेंगे उस समय शरीर पर "अणु | से उद्वर्तन एवं उशीर-खस-युक्त कुंवेके जलमें तेल" की मालिश करके उन कृमियों को बांसकी स्नान और चन्दन का उपलेपन करना चाहिये चिमटी से अलहदा कर दें । दूसरे मास में शरीर | तथा अन्य समस्त आहार विहार, भिलावा सेवन से चींवटियां और तीसरे मास में जुवें निकलेंगी | की विधि के अनुसार करना चाहिये ।
अथ आकारादि घृतप्रकरणम् [४१९] आनन्दभैरवघृतम् । [४२०] आमलकघृतम् (र. र. स. अ. २१)
(च. सं. चि. अ. १) एरण्डतैलं त्रिफला गोमूत्रं चित्रकं विषम। आमलकानां सुभूमिजानां कालजानामनुसर्पिषा सहितं पक्त्वा सर्वाङ्ग तेन मर्दयेत॥ | पहतगन्धवणेरसानामापूर्णरसप्रमाणत्वग्वातनं महाश्रेष्ठं घृतमानन्दभैरवम् ।
वीर्याणां स्वरसेन पुनर्नवाकल्कपादसंयुक्तेन लशुनं सैन्धवं तैलमनुपानं प्रकल्पयेत् ॥
सर्पिषः साधयेदाढकम् । अतः परं विदारीत्रिफला, चीता और शुद्ध मीठे तेलिये के स्वरसेनजीवन्तीकल्कसंप्रयुक्तेन अतः परं कल्क और गोमूत्र के साथ अरण्डी का तेल और | चतुगुणेन पयसा वा बलातिबलाकषायेण घृत बराबर मिलाकर यथा विधि पाक सिद्ध करें। शतावरीकल्क संयुक्तेन अनेन क्रमेणैकैकं इसकी मालिश से त्वग्गत वायु का नाश होता है। शतपाकं सौवर्णे राजने मातिके वा शुचौ यदि इसे खाने के लिये देना हो तो ल्हसन, सेंधा- | दृढे घृतभाविते कुम्भे स्थापयेत् । तयथोक्तेन नमक और तैल का अनुपान देना चाहिये। । विधिना यथामिं प्रातः प्रयोजयेत् । जीणेच
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