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भारत-भैषज्य रत्नाकर
निहन्ति वातजान् रोगान् मेदः स्थौल्यापहासवः । यता, चव, स्पृक्का, पद्माक, हल्दी, दारूहल्दी, पैठेको कूटकर उसका रस निकालें। यह रस | धनिया, देवदारु और विदारीकन्द | प्रत्येक १1१। तोला | लोहका बुरादा ० ॥ सेर । धायके फूल १ सेर ।
३२ सेर, गुड़ ८ सेर, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, लौंग, दालचीनी, तेजपात, इलायची, नागकेसर, कँकोल, जायफल, जावित्री, फूलप्रियंगु, कैथ, इन्द्रजौ, गोखरू, गिलोयका सत, भारंगी, खरैटीके बीज, हाऊबेर, सुपारी, देवदारु, कस्तूरी, खैरसार, नागरमोथा, चीता, त्रिफला, रास्ना, मुल्हैठी, तुम्बरु नागकेसर, पीपलामूल, अजमोद, कलौंजी, अजवायन, कायफल, बंसलोचन, अकरकरा, उटङ्गन के बीज, कैथका छिलका, सोया, गजपीपल, हिसोड़ा (सपिस्ता) इन्द्रजौ, काकोली, कपूरकचरी, मोचरस, नागरमोथा, तालमा, नाखकसेरु, सहदेवी, चिरा
[८९८] कटुतुम्ब्यादिलेपः
(बृ. नि. र; अर्श; र. र. स. अ १५; ग. नि . ) आरनालेन संपिष्ट्वा सबीजकटुतु म्बिका । सगुडा हन्ति लेपेन अशसि मूलतो ध्रुवम् ॥
कड़वी तोरीको बीजों सहित कांजी में पीसकर गुड़ में मिलाकर लेप करनेसे बवासीरका समूल नाश होता है । [८९९] कण्टकार्यादिलेपः
(बृ. नि. र. । क्षु. रो.) इन्द्रलुप्ता हो लेपो मधुना बृहतीरसः । गुञ्जामूलं फलं वापि भल्लातकर सोपि वा ॥
कटेलीके रसको शहद में मिलाकर लेप करनेसे या गुञ्जा (चाटली) की जड़ या फल का अथवा भिलावेके रसका लेप करनेसे गंज (बालोंका नष्ट हो जाना) नष्ट होता है।
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सबको यथाविधि चिकने बरतन में सन्धान करके १५ दिन तक भूमिमें गढ़ा रहने दें। फिर छान कर सुरक्षित रक्खें ।
अथ ककारादि लेप प्रकरणम्
इसे प्रतिदिन प्रातःकाल ५ तोलेकी मात्रा - नुसार सेवन करनेसे धातुक्षय, मन्दाग्नि, प्रमेह, पांडु बवासीर, ग्रहणीदोष, तिल्ली, उदररोग, भगन्दर, आमवात, रक्तपित्त, श्लेष्मरक्त, वातव्याधि और मेदवृद्धिका नाश होता है ।
[९००] कनकाविलेप: (बृ. नि. र; विस.) कनकभुजगवल्ली मालतीपत्रमूर्वा रसगद कुनटीभिर्मर्दितस्तैलयोगात् । अपहरति रसेन्द्रः कुष्ठकण्डूविसर्प
स्फुटितचरणरंधं श्यामलत्वं त्वचायाः॥ कूठ, मनसिल और पारदको खूब घोट कर तेलमें धतूरा, पान, चमेली के पत्ते, मूर्वा, रसौत, मिलाकर लेप करनेसे कोद, खुजली, विसर्प, बिवाई और त्वचाकी श्यामता नष्ट होती है । [९०१] कमलादिलेप: (बृ. नि. र; शि. रो.) कमलं सुरसामूलं लिप्त हंति शिरोरुजम् ॥
कमल और तुलसीकी जड़ को पीस कर लेप करनेसे शिरकी पीड़ा शान्त होती है। [ ९०२ ] करवीरादिलेपः
(वृ. नि. र. । त्वग्दो; वा.भ.चि. अ. १६; कुष्ठा.) श्वेतकरवीरमूलं कुटजकरंजत्वचादापः ।
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