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परिशिष्ट
लेपप्रकरणम् ]
उपोदिका (पोई) को कांजी या तक्र में पीसकरे उसमें सेवा नमक मिलाकर गाढ़ा गाढ़ा लेप करने से मर्मज अर्बुद नष्ट हो जाता है । (९१२१) उशोरादिलेपः ( वै. म. र । पटल ११ ) उशीर बहुशो लिम्पेनश्येत् वेदमसूरिका ।
इति उकारादिलेपकर गम्
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अथ उकारादिधूपप्रकरणम
(९१२२) उग्रगन्धादिधूपः ( वृ. मा. । मसूरिका. )
उग्राज्यवंश नीली यवविष कार्पासिकी सब्राह्मी सुरसमयूरकलाक्षाधूपो रोमान्तिकादिहरः । आदावेन प्रयुक्तस्य प्रशा यन्ति ममरिकाः न गृह्णन्ति विषं विद्ययाला रिह ||
बच, वांसके पत्ते, नीलका पंचांग, जौ, वळनाग, कपास के बीज (बिनौले), पाली, तुलसी,
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(९१२३) उन्मादभञ्जिनीवदी (र. रा. सु. | उन्मादा. )
शुद्धं मनःशिला चूर्ण सैन्धवं कटुरोहिणी । बचा शिरीषबीजश्च हिहुं च श्वेतसर्षपम् ॥
खसको ( पानी के साथ बारीक पीसकर बारबार लेप करने से स्वेद और मसूरिका का नाश होता है ।
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अपामार्ग ( चिरचिटा ) और लाख समान भाग लेकर बारीक चूर्ण बनावें तथा उसे घी से चिकना
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इति उकारादिधूपप्रकरणम्
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मसूरिका के प्रारम्भमें इसकी धूप देने से वह नष्ट हो जाती है ।
अथ उकाराद्यञ्जन प्रकरणम्
इस योग में कोई कोई वैद्य 'विष' ग्रहण नहीं करते । इसकी जितनी चीजें मिल सके उतनी ही ले लेनी चाहियें ।
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करवीजं त्रिकटु मलं पारावतस्य च । एतानि समभागानि गोमूत्रैर्वटिकां कुरु ॥ गिरिमली बीज समां छायाशुष्काञ्च कारयेत् । मातः सन्ध्या निशाकाले चक्षुषोरञ्जनहितम् ।।