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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org आकारादि - अवलेह Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४१ ) अर्श, ज्वर, पीनस, सूजन, गुल्म और क्षय का नाश होता है । ॥ चित्रकं ग्रंथिकं धान्यं जीरकद्वयमेव च । कर्षाशं श्लक्ष्णचूर्णं तु मेलयित्वा तु भक्षयेत् ॥ अरोचकक्ष हरममिदीप्तिकरं परम् । कामलापांडुशोफर्म कासश्वासहरं परम् ॥ आध्मानोदरगुल्मांश्च प्लीहं शूलं च नाशयेत् अद्रक का रस २ सेर, गुड़ ४० तोला, विजौरे नीबू का छना हुवा रस ४० तोला । सबको एकत्र करके मंदाग्नि पर पकावे और पाक सिद्ध होने पर उसमें यह चीजें मिलावे - दालचीनी, तेजपात, इलायची, सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हैड़, बहेडा, आमला, धमासा, चीता, पीपलामूल, धनिया और दोनोंजीरे प्रत्येक द्रव्यका चूर्ण ११ - १ तोला । यह अरुचि, क्षय, कामला, पाण्डु, सूजन, खांसी, उदररोग, गुल्म, तिल्ली और शूल श्वास, अफारा, नाशक तथा अग्निवर्द्धक है । [ ४०९] आर्द्रकावलेह (वै. जी. ३ वि.) आर्द्रादितला गुडादपि ६। सेर कुड़ेकी गीली छालको ३२ सेर पानी में पकावे, जब चौथा भाग शेष रह जाव तो छानकर उसमें - लजालु, धायके फूल, बेलगिरी, पाठा, मोचरस, नागरमोथा और अतीस, इनमें से प्रत्येक का ५ - ५ तोला चूर्ण मिलाकर पुन: पकावे । जब गाढ़ा होकर करछी को लगने लगे तो उतार ले । इसे पानी, बकरीके दूध या चावलों के * मांड के साथ सेवन करने से रङ्ग विरङ्गे, वेदनायुक्त और अन्य सब प्रकार के प्रबल अतिसार, रक्तप्रदर बवासीर और प्रवाहिकाका नाश होता है । । तथा द्वथा च कस्तुम्बरी दीप्यायोजरण त्रिजात जलदादेतत्पचेद्यु क्तितः लेहो रत्नक ले ! तवैव कथितः प्राणप्रियाया मया कासार्शोज्वरपीनसश्वयथुरुग्गुल्मक्षयध्वंसनः ॥ अदरक ६। सेर, गुड़ २५० तोला, कुस्तुम्बरी, ( कच्चा धनिया ) अजवायन, लोह भस्म, जीरा, दालचीनी, तेजपात, इलायची और नागरमोथा इनमें से प्रत्येक का चूर्ण १० - १० तोला यथा विधि पाक सिद्ध करे । इसके सेवन से खांसी, [४१०] आर्द्रकुटजावलेहः (वृ. नि. र. अति.) कुटजत्वक्तु लामाद्रीं द्रोणनीरे त्रिपाचयेत् । पादशेषं भृतं नीत्वा चूर्णान्येतानि दापयेत् ॥ लज्जालु धातकी बिल्वं पाठा मोचरसस्तथा । मुस्तं प्रतिविषा चैव प्रत्येकं स्यात्पलं पलम् || ततस्तु विपचेद्भूयो यावद्दवप्रलेपनं । जलेन छागदुग्धेन पीतो मण्डेन वा जयेत् || सर्वातिसारान् घोरांस्तु नानावर्णान् सवेदनान् । असृग्दरं समस्तं च सर्वाशसि प्रवाहिकाम् ।। + मांड - चावलोंको १४ गुने पानी में पकाकर तइयार किया जाता है। इसमें कण बिलकुल नहीं रहता । मण्डचतुर्दशगुणे यवागूः षडगुणेऽम्भसि । ferenरहितो मण्डः सिक्थसमन्विता ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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