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(७०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
उसमें क्वाथ (या जल) में मिश्रित गुड़, मधु, औषधियां का चूर्ण आदि डालकर उसके मुखको शराव से अच्छी तरह वन्द करके उसके ऊपर कपड़ मिट्टी कर देनी चाहिये कि किसी स्थान से वायु उसके अन्दर न जासके। अब इस बरतन को भूमि के अन्दर गढ़े में या किसी अन्य गरम स्थान में १५ दिन या १ महीने तक (जैसी शास्त्राज्ञा हो) रक्खे रहने देना चाहिये।
इसके बाद आसव या अरिष्ट को निकालकर छानकर बोतलों या पत्थर की बरनियों में भरकर बन्द करके रखदेना चाहिये ताकि अन्दर हवा न जा सके क्योंकि हवासे आसव खराब हो जाता है।
यदि बोतलों में भरना हो तो बोतलों को मुंह तक लवालब न भरना चाहिये बल्कि थोड़ा स्थान खाली छोड़ देना चाहिये क्योंकि मुंह तक बोतल भर देनेसे आसवमें जोश आकर उसके बाहर निकल जाने या बोतलके फट जानेका भय रहता है। .. आसव और अरिष्ट ज्यों ज्यों पुराने होते जाते हैं त्यों त्यों उनमें गुणवृद्धि भी होती जाती है। यथा
प्रायशोऽभिनवं मद्यं गुरुदोषसमीरणम् ।
स्रोतसां शोधनं जीर्ण दीपनं लघुरोचनम् ॥ (चरक सू. अ. २) अर्थात्-प्रायः नवीन मद्य गुरु और वायु कारक होते हैं और पुराने होने पर (१ वर्ष बाद) स्रोतशोधक, दीपन और रुचिवर्द्धक होते हैं।
सेवन-विधि मात्रा--आसवारिष्ट १ तोले से २ तोले तक की मात्रामें सेवन किये जाते हैं। समय-साधारणतः सभी आसव और अरिष्ट भोजन के पश्चात् पिये जाते हैं, परन्तु रोग और रोगी की परिस्थिति के अनुसार समय में फेर फार किया जा सकता है।
आसव या अरिष्ट में समान भाग पानी मिलाकर सेवन करना चाहिये क्योंकि पानी के साथ सेवन करने से प्रभाव शीघ्र होता है एवं पानी रहित सेवन करने से कभी कभी गले और
छातीमें दाह आदि होने लगती है [१९१] अभयारिष्टः (१) | द्रोणशेषे रसे तस्मिन् पूते शीते समावपेत् ।
(च. स. चि. अ. १४ अर्श) गुडस्य द्विशतं तिष्ठेत् तत् पक्षं घृतभाजने ॥ हरीतकीनां प्रस्थाई प्रस्थमामलकस्य च । पक्षाचं भवेत्पेया ततो मात्रा यथा बलम् । स्यात्कपित्थादशपलं पलार्द्धनेन्द्रवारुणी ॥ अस्याभ्यासादरिष्टस्य गुदजा यान्ति संक्षयम् ॥ विडङ्ग पिप्पली लोधं मरिचं सैलबालुकम् । । ग्रहणी पाण्डुहृद्रोगप्लीहगुल्मोदरापहः । दिपलांशं जलस्येतचतुद्रोणे विपाचयेत् ॥ । कुष्ठशोफारुचिहरो बलवर्णाग्निवर्दनः ।
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