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भारत-भैषज्य-रत्नाकर
करनेसे प्लीहा, यकृत् , उदर रोग, गुल्म(गोला) और । अवजातीफलमर्धभागिकं, हलीमकका नाश होता है तथा बल, वर्ण, अग्नि, तिन्तिडीकरसकेन मर्दितम् ॥ कान्ति और पुष्टि बढ़ती है।
माषमात्रमनुपानमाकं, [२६५] अग्नितुण्डोरसः (र.र.स.। अ.र.) सद्य एष जठराग्निदीपनः ॥ उदराध्माननुत्यर्थ रसो ह्येष निगद्यते । शुद्ध पारा, शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध गन्धक, और अमितुण्ड इति विख्यातः सर्वोदरगदापहः॥ लौंग १-१ भाग. कालीमिर्च २ भाग तथा जायरसगन्धाजमोदानां कृमिनब्रह्मबीजयोः। फल आधा भाग। प्रथम पारे गन्धककी कजली एकद्वित्रिचतुःपञ्चभागान्पविषतिन्दुकात् ॥ बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण सञ्चूर्ण्य मधुना सर्व गुटिकां कृमिनाशिनीम्। मिलाकर तिन्तिडीकके रसकी भावना देकर रक्खे । खादयित्वानुतोयं च मुस्तानां कृमिशान्तये ॥ इसे १ माशेकी मात्रामें अद्रकके रसके साथ सेवन आखुपर्णीकषायं च शर्करां पिव सर्वथा। करनेसे शीघ्र ही अग्नि प्रदीप्त होती है। व्यवहारिक कमिज्वरोपशान्त्यर्थ खण्डामलकमत्ति वा॥ | मात्रा-३ रती स जग्ध्वैवं पर्पटी च स्नुहीरसं पिवेदनु। [२६७] अग्निप्रदोरसः (र.प्र.सु.। अ. ८) स्नुहीरसं बिना कश्चिच्छेत्तुं जन्तुम्न शक्नुयात् ॥
बाद" कर्षों द्वौ रसगन्धयोस्तु समयोः समर्थ व्यालस्यवै। शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, |
| ककेनविषेण कजलनिभं काचस्प कूप्या क्षिपेत्॥ अजमोद ३ भाग, बायबिडंग ४ भाग, ढाकके |
| लिवाकर्पटमृत्स्नया सुविधिना सम्पाच्ययामाष्टकं बीज (पलास पापड़ा) ५ भाग और शुद्ध कुचला ६ भाग । प्रथम पारे गन्धककी कजली बनावें और | ज्ञात्वा शीतलमत्र विधिना मधे द्विकर्षोषणैः।। उसमें अन्य औषधियोंका चूर्ण मिलाकर खूब खरल !
भक्षेद्रक्तिकमिक्षुशरयुतं नाम्ना रसोऽग्निप्रदो। करके शहदके साथ (३-३रत्तीकी) गोलियां बनावे।
मन्दाग्निक्षयसभिपातमरुतां नाशाय चायं वरः। इन्हें कृमि रोगके लिये मोथेके क्वाथके साथ या
शुद्ध पारा और शुद्ध गन्धक ११-१। तोला चूहाकन्नी के कषाय और चीनीके साथ सेवन करना
लेकर कजली बनावें और फिर उसमें सीसा(भस्म) चाहिये। कृमि ज्वरके लिये इसे खानेके पश्चात्
तथा शुद्ध वच्छनाग १।-११ तोला, लाल चीता, आमला और खांड मिलाकर खाना चाहिए, कृमि
मीठा तेलिया १।-११ तोला । सबको धोटकर कपर रोगकी शान्तिके लिए उक्त विधिसे रस अथवा पर्पटी
मिट्टीकी हुइ आतशी शीशीमें भरकर (मुख बन्द (रसपर्पटी) खाकर थूहरके पत्तोंका रस अवश्य पीना करके) विधिवत् ८ पहर तक (बालका यन्त्रमें) चाहिए क्योंकि थूहरके पत्तोंके रसके बिना प्रायः पकावे इसके बाद स्वाङ्ग शीतल होनेपर निकालकर कृमियोंका नाश नहीं होता।
| उसमें २॥ तोला काली मिर्चका चूर्ण मिलाकर [२६६] अग्निदीपनरसः (र.प्र.सु.। अ. ८) पारदामृतलवङ्गगन्धक,
इसे ईखके रस या चीनी के साथ १ रत्तीकी मागयुग्ममरिचेन मिश्रितम् । मात्रा में सेवन करने से मन्दाग्नि, क्षय, वायु और
| मर्दन करे।
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