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अकारादिक्वाथ
(१३) [२६] अर्कादि गणः । [२९] अर्कोकुरादिस्वरसयोगः
(मु० सं० सू० अ० ३८) (वृ० नि० २०, भा. प्र०, व. से० । कर्णरोगा०) अर्कालकरञ्जद्वयनागदन्तीमयूरकभार्गीरा- | अर्काङ्कुरानम्लपिष्टान् सतैलान्लषणान्वितान् । स्नेन्द्रपुष्पीक्षुद्रश्वेतामहाश्वेतावृश्चिकाल्यलव- | सन्निदध्यात्सुधाकांडे कोरिते मृत्स्नया वृते ॥ णास्तापसवृक्षश्चेति।
पुटपाकक्रियास्त्रिन्नं पीडयेदारसागमात् । अर्कादिकोगणो ह्येष कफमेदोविषापहः।। सुखोष्णं तद्रसं कर्ण प्रक्षिपेच्छूलशांतये ।। कृमिकुष्ठप्रशमनो विशेषाद् व्रणशोधनः॥ ___आकके अंकुरोंको कांजी या नींबूके रसमें
सफेद और लाल आक, लता करंज, | पीसकर तेल और नमक मिलाकर उसे थोहरके वृक्ष करंज, नागदन्ती, चिरचिटा, भारंगी, रास्ना, डंडेमें भरकर उसपर कपड़मिट्टी लगादे, फिर कलिहारी, श्वेत अपराजिता, कृष्ण अपराजिता, | पुटपाक विधिसे पकाकर उसका रस निकाले उस वृश्चिकाली(विछवा घास), मालकांगनी और इंगुदी- | रसको गुनगुना करके कानमें डालने से कानके वृक्ष । ये अर्कादिगण कफ, मेद, विष, कृमि, कोढ़ दर्दका नाश होता है। नाशक और विशेष कर व्रणशोधक हैं।
[३०] अर्कपत्रस्वरसयोगः [२७] अर्कादि क्वाथ: (४) (वृ० नि० २०, भा० प्र०, बं० से., ई० मा०; यो० र०)
चं० द० । कर्णरोगा०)
अर्कस्थपत्रं परिणामपीतसेकस्तथाऽवर्षाभूनिम्बकाथेन शोफजित् ।
___ माज्येनलिप्तं शिखियोगतप्तम् । गोमत्रेणापि कुर्वीत सुखोष्णेनावसेचनम् ॥
आपीडय तस्याम्बु सुखोष्णमेव सौवर्चलसमं धृष्टं सर्षपैश्च प्रलेपनम् ॥
कर्णे निपिक्तं हरतीति शूलम् ।। ___आक, पुनर्नवा और नीमकी छाल। इनका
आकके पके हुए पीले पत्तों पर घी लगाकर क्वाथ बनाकर सेकनेसे सूजनका नाश होता है। आग पर तपाकर उनका अर्क (स्वरस) निकालकर सूजन के ऊपर मन्दोष्ण गोमूत्रका अवसेचन करने | गुनगुना करके कान में डालनेसे कानका दर्द से तथा सौंचल और सरसोंका लेप करनेसे भी मिटता है। होता है।
[३१] अशोघ्नमहाकषाय दशकः [२८] अर्क पुष्पयोगः
(च० सं० सू० अ० ४) (यो० र०)
कुटजबिल्वचित्रकगागरातिविषाभयाधन्वयापक्वं तैलेर्कजं पुष्पं रुधिरस्रावकारि च। सकदारुहरिद्रावचाचव्यानीति दशेमानि अझै
आकके फूल तेलमें पकाकर सेवन करनेसे मानि भवन्ति । स्त्रियोंका मासिक धर्म खुलकर होता है । कुड़ेकी छाल, बेलकी छाल, चीता, सोंठ,
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