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धूपप्रकरणम्]
परिशिष्ट
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कूठ, हरं, नीमके पत्ते और मनसिल समान | मिलाकर निर्धूम अंगारों पर डालकर अर्शके मस्सों भाग लेकर एकत्र कट लें। इसमें घी और शहद को धूनी देनेसे पीड़ा कम हो जाती है ।
इति ककारादिधृपप्रकरणम्
अथ ककाराद्यञ्जनप्रकरणम् (९४३६) कणाञ्जनम् । अपस्मारे तथोन्मादे सर्पदष्टे गरादिते ।
(वै. जो. । विला. ३) विषपीते जलमृते चैताः स्युरमृतोपमाः ॥ निराकरोति नक्तान्ध्यं सगोमयरसा कणा । ___कैथका गूदा, हरी मूंग, नागरमोथा, खस, यथा रतेन रमणी रमणस्य महाबलम् ॥ जौ, सोंठ, मिर्च और पीपल; इनके समान भाग
गायके गोबर के रसमें पीपलके चूर्णको घोट | मिलित चूर्णको बकरे के मूत्र में खरल करके कर उसका अञ्जन लगाने से रतौंधा नष्ट होजाता है। | बत्तियां बनावें । (९४३७) कतकफलाद्यञ्जनम्
____ अपस्मार, उन्माद, सर्पदंश, विषविकार और (व. से. । नेत्ररोगा. ; ग. नि. । नेत्ररो. ३ ; पानीमें डूबने से हुई मूर्छा में इस वर्तिका अंजन वृ. मा. । नेत्ररोगा.)
अमृतके समान गुणकारी है। कतकस्य फलं शङ्ख तिन्दुकं' रूप्यमेव च ।।
(९४३९) कमलकन्दादियोगः कांस्ये निघृष्य स्तन्येन क्षतशुक्रार्तिरोगजित् ॥
(वै. म. र. । पटल १७) निर्मलीका फल, शंखनाभि, तेंदु के फलकी |
कृष्णाष्टमीनिशायां पङ्कज गुठली ( पाठान्तरके अनुसार लोध ) और चांदी;
मूलात्तमृत्तिकान्तःस्थम् । इन्हें कांसीके पात्र में स्त्रीके दूधके साथ घिसकर
कन्दं तमसि सुपिष्ट निद्रा आंखमें लगाने से क्षतशुक्र का नाश होता है ।
कुरुतेऽञ्जनात् सायम् ॥ ( ग. नि. में अन्यत्र इसी प्रयोगमें मुलैठी
कृष्ण पक्षकी अष्टमीको रात्रि में जमीनके अधिक है तथा ताम्रपात्रमें घिसने को लिखा है। ) |
भीतरसे कमलकी जड़ निकालकर उसे अन्धेरे में ही (९४३८) कपित्थादिवतिः
घिसकर आंखमें आंजनेसे नींद आ जाती है। ( वृ. मा. । अपस्मारा. ; वृ. यो. त.। त. ८९)
(९४४०) करञ्जबीजवतिः कपित्याशारदान्मुद्गान्मुस्तोशीरयवांस्तथा ।
( हा. सं. । स्था. ३ अ. १८) सत्योपान्धस्तमूत्रेण पिष्ट्वा वीः प्रकल्पयेत् ॥
करमबीज सह सैन्धवेन १ तिल्वकमिति पाठान्तरम्
रसोनपत्रस्य रसं च यत्र ।
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