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(३४४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
मांस नागबलासहाचरपुरौ हिड्ग्वाईके नित्यशः | तालीशादेश्च पत्राणि फलं स्यात् त्रिफलादितः ॥ ग्राह्यास्तत्क्षणमेव न द्विगुणिताये चेक्षुजाताधनाः॥ अतिस्थूलजटायाश्च तासां ग्राह्यास्त्वचो धवम् । ___निम्न लिखित द्रव्य सदैव आर्द्रावस्थामें गृह्णीयात् सूक्ष्ममूलानि सकलान्यपि बुद्धिमान् ॥ (गीले-ताज़े) ही लेने चाहिएं एवं इनका बड़ आदि वृक्षोंकी त्वचा, विजयसार परिमाण द्विगुण न करना चाहिए:
आदिका सार, तालीशादिके पत्र और त्रिफवासा, नीम, पटोल, केतकि, खरेटी, पेठा, लादि के फल ग्रहण करने चाहिए। शतावर, पुनर्नवा, कुड़ेकी छाल, असगन्ध,
जिन वृक्षोंकी जड़ अधिक मोटी हो उनकी पूतिगन्धा (गन्धप्रसारिणी) नागवला, पिया
छाल और जिनकी जड़ बारीक हो उनके बांसा, गूगल, हींग, अद्रक और ईखसे बने हुए कठिन पदार्थ (राब, मिश्री इत्यादि)।
समस्त अङ्ग काममें लाने चाहिएं पुरातनान्येव प्रशस्तानि
पुनरुक्तौ द्रव्यग्रहणम् द्रव्याण्यभिनवान्येव प्रशस्तानि क्रियाविधौ। । एकमप्यौषधं योगे यस्मिन्यत्पुनरुच्यते । ऋते घृतगुडक्षौद्रधान्यकृष्णाविडङ्गतः ॥ मानतो द्विगुण प्रोक्तं तद द्रव्यं तत्त्वदर्शिभिः ।
चिकित्सा कार्यमें घी, गुड़, शहद, धान्य, | यदि किसी योगमें एकही ओषधि दो पीपल और बायबिडङ्गके अतिरिक्त समस्त वार लिखी हो तो उसे द्विगुण परिमाणमें द्रव्य नवीन ही ग्रहण करने चाहिएं । लेनी चाहिए। द्रव्याङ्गग्रहणम्
व्याधेरयुक्तं यद्रव्यं गणोक्तमपि तत् त्यजेत् । सारः स्यात् खदिरादीनां निम्बादीनाञ्च वस्कलम् । अनुक्तमपि युक्तं यद्योजयेत्तत्र तबुधैः ॥ फलन्तु दाडिमादीनां पटोलादेश्छदस्तथा ॥ ___यदि किसी प्रयोगमें कोई औषधि रोगी ___ खदिरादिवृक्षोंका सार, निम्बादिकी छाल, के लिए हानिकारक हो तो उसे निकाल डादाडिम आदिके फल और पटोल आदि के | लना चाहिए । इसि प्रकार यदि कोई औषधि पत्र काममें लाने चाहिएं।
रोगीके लिये हितकारी हो तो वह योगमें न न्यग्रोधादेस्त्वचो ग्राह्याः सारः स्याद्वीजकादितः। होनेपर भी डाली जा सकती है।
तृतीय प्रकरणम् अथ सामान्योक्तौ द्रव्यग्रहणम्
सफेद सरसों, लवणसे सेंधानमक और मूत्र, पात्रोक्तौ चापि मृत्पात्रमुत्पले नीलमुत्पलम् ।
| दूध तथा घीसे गोमूत्र, गोदुग्ध और गोघृत शकृद्रसे गोमयरसश्चन्दने रक्तचन्दनम् ॥
समझना चाहिए । सिद्धार्थः सर्षपे ग्राह्यो लवणे सैन्धवं मतम् ।
दूध मूत्र और पुरीप (गोवर) पशुका आमूत्रे गोमूत्रमादेयं विशेषो यत्र नेरितः ॥
| हार पचजाने पर ग्रहण करना चाहिए।
| चूर्णस्नेहाऽऽसवालेहाः प्रायशश्चन्दनान्विताः । पयः सर्पिः प्रयोगेषु गव्यमेव प्रशस्यते ।
| कषायलेपयोः प्रायो युज्यते रक्तचन्दनम् ॥ क्षीरभुत्रपुरीषाणि जीर्णाहारे तु संहरेत् ॥ ___ यदि स्पष्ट वर्णन न हो तो पात्रका अर्थ
चूर्ण, स्नेह, आसव और अवलेहमें प्रायः मिट्टीका पात्र, उत्पलका नीलोत्पल और शकृद्र
सफेद चन्दन, और कषाय तथा लेपमें प्रायः सका अर्थ गायके गोबरका रस समझना |
| लाल चन्दनका व्यवहार किया जाता है। चाहिए । एवं चन्दनसे लाल चन्दन, सर्षपसे ।
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