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(१५६)
भारत-भैषज्य रत्नाकरे।
अथ इकारादि कषायप्रकरणम् (४५०) इन्द्रवारुणिमूलयोगः । गुल्मनाहामवातांश्च रक्तपित्तश्च नाशयेत् ।। (वृ. नि. र. अण्डवृद्धि)
_इन्द्रायनकी जड, कुटकी, नागर मोथा, कुठ, इन्द्रवारुणिकामूलं तैलं पुष्करजं तथा। | देवदारु और इन्द्रजौ श-१। तोला, अतीस ७॥ समर्थ च सगोदुग्धं पिबेजंतुः कुरण्डके ॥ माशा, मुलैठी २॥ तोला, सबको कूटकर गरम
इन्द्रायणकी जड ओर पोखरमूलको तैलमें पानीमें डालें और मल छानकर पिये फिर ऊपर से पीसकर गोदुग्धके साथ सेवन करने से अण्ड वृद्धिका | थोडासा शहद चाटलें। इसके सेवन से खांसी, नाश होता है।
श्वास, ज्वर, दाह, पाण्डु, अरुचि, गुल्म, अफारा, (४५१) इन्द्राणी मूलयोगः
आमवात और रक्तपित्तका नाश होता है ।
| [४५३] इक्ष्वादिकषायः ( वृ. नि. र. अण्डवृद्धि) वातारितैलमृदितं सुरवारुणीजं
(वृ. नि. र; ग. नि., भा. प्र. म. ख., र. पि.) मूलं नरः पिबति यो मसृणं विचूर्ण्य ।
इक्षणां मध्यकाण्डानि सकन्द नीलमुत्पलम् । गव्ये निधाय पयसि त्रिदिनावसाने
केसरं पुण्डरीकस्य मोचं मधुकपनके ॥ तस्य प्रणश्यति कुरण्डकृतो विकारः॥
वटमरोहशुङ्गाथ द्राक्ष खजूरमेव च । इन्द्रायणकी जडको अरण्डी के तेलमें महीन
एतानि समभागानि कषायमुपकल्पयेत् ॥ पीसकर गायके दूधके साथ ३ दिन तक सेवन
व्युपितं मधुसंयुक्तं कषायं शर्करान्वितम् ।
| सप्रमेहं रक्तपित्तं क्षिप्रमेतंन्नियच्छति ॥ करने से अण्ड वृद्धिका नाश हाता है।
__ईखका मध्यभाग (गन्ना) कन्द सहित निलो(४५२) इन्द्रवारुण्यादिफाण्ट
| फर, केसर, केलेका फूल (अथवा मोचरस) मुल्हैठी, ___ (च. सं. चि. अ. २०)
पद्माक, बड़की जटा और अंकुर, दाख और खजूर । विशाला १ कदुकामुस्तकुष्ठदारुकलिङ्गकान् ।
इनका शीत कषाय बना कर उसमें शहद और कार्षिकानकषांशान् कुर्यादतिविषां तथा ॥
खांड मिलाकर सेवन करने से प्रमेह और रक्तपित्त की मधुरसाया द्वौ १ सर्व चूर्ण सुखाम्बुना। का नाश होता है। मृदितं तं रसं पूतं पीत्वा लिह्याश्च मध्वनु ।
। त्रिफला मुस्तोति पाठान्तरम् - सर्वमेतकासं श्वासं ज्वरं दाहं पाण्डुरोगमरोचकम् । 'दिति पाठान्तरम्
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