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आकारादि-रस
(१५५)
___ शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, अभ्रकभस्म । हन्यात्पाण्डुरोचकं गुदगदं वातं च पित्तं कर्फ
और ताम्रभस्म १-१ माग, त्रिफला २ भाग, शुद्ध गुल्माध्मानकशोफरोगमथ च श्वासं शिरोति शिलाजीत ३ भाग, शुद्ध गूगल ४ भाग, चीतामूल
वमिम् । ४ भाग और कुटकी सबके बराबर । प्रथम पारा
अत्यर्थानलमंदतां गुरुमुदावतं विचित्रज्वरान् । गन्धककी कजली बनाये, फिर उसमें अन्य द्रव्यों
| रोगानप्यपरारक्तिद्वयमितः सूतो
से का चूर्ण मिलाकर सबको दो दिन तक नीम के
मरीचाज्यवान् ।। पतों के स्वरसमें घोटकर बड़े बेरके बराबर गोलियां बनावें । इनके सेवन से मंडलकुष्ट, अन्य सब प्रका
___शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गंधक ५ तोला
| दोनों की कजली करले । उसमें सोनामक्खी भस्म रके कुष्ठ, वातज, पित्तज और कफज ज्वर आदिका
१० तोला, शुद्ध हरताल ५तोला, शुद्ध मनसिल ५ नाश होता है। इन्हें ज्वर आनेके पांचवें दिन से
| तोला, अभ्रकभस्म ५ तोला, सुखस्पर्शमणि ( स्फासेवन कराना चाहिये । यह गोलियां पाचनी, दीपनी, पथ्या, हृद्या ( हृदय के लिये हितकारी)
टिकमणि ) की भस्म १। तोला मिलाकर खरल मेद नाशक, मलशोधक, अत्यन्त क्षुधावर्द्धक तथा
करके मूषामें भरकर उसका मुख ३॥ तोला अन्य सर्व रोग नाशक हैं।
वजनी तांबेके शुद्ध पत्रसे बन्द कर दें एवं उसके [४४९] आरोग्यसागरो रसः
उपर मजबूत कपर मिट्टी करके सुखालें और अपने (र. र. स. अ. १९)
उपलों की अग्निमें गजपुट लगादें । जब स्वांगशीत एकैकपलगन्धाश्मरससंभवकजलीम् ।।
हो जाय तो निकाल कर खरल करें और उसमें तस्य मध्येद्विपलिक ताप्यं तापलोमितमा शुद्ध गंधक,शुद्ध हरताल तथा शुद्ध मनसिलका चूर्ण पलमात्रां मनोहां च पलमभ्रकभस्मकम।। पारे के बराबर मिलाकर वग़ह पुटमें फूंके । इसी सुखस्पशेस्य कर्ष च निक्षिप्य परिमर्य च ॥ प्रकार १० पुट दें। मृपामध्ये विनिक्षिप्य पिनद्धांतमुखीं ततः।।
| हर पुटमें गन्धक. हरताल और मनसिल मिलाते पत्रेण शुद्ध ताम्रस्य निर्मलेन त्रिकर्षिणा ॥ रहें । इसके बाद उसमें सबके वजन से वीसवां मूषा मृद्धिः सवस्राभिः परिरुच्य यथा दृढम् । भाग वैक्रान्त भस्म मिलाकर घोटकर कपरछन करके परिशोष्य गिरिडैश्च पुटेद् गजपुटेन हि ॥ चांदीकी शीशी (करंड) में भरकर रक्खें । खाङ्गशीतं समुद्धृत्य खोटीभूतं विचूर्णयेत् । इसके सेवनसे पाण्डु, अरुचि, गुदरोग, वातगन्धतालशिलाचूर्णैः सहितं खल्वचूर्णकम् ॥ | व्याधि, पित्तज और कफजरोग, गुल्म, अफारा, पुटेल् क्रोडपुटे चैव दशवारं ततः परम् ।। सूजन, श्वास, मस्तक पीडा, वमन, अत्यन्त अग्निक्षिपेद्विंशतिभागेन वैक्रान्तं भस्मतां गतम् ॥ मांद्य, भयंकर उदावत, नाना प्रकार के वर और विमद्य गालितं कृत्वा क्षिपेद्रौप्यकरंडके।। अन्य अनेक रोगोंका नाश होता है । अनुपान-- आरोग्यसागरो नाम रसोऽतिगुणवत्तरः ॥ । काली मिर्चका चूर्ण और धी।
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