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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[उकारादि
(९१२८) उदरारिलोहः | लोहदण्डेन सघृष्य लोहपात्रे चिरं भिषक् । (र. र. ; व. से. । उदरा.)
| विधिज्ञोक्तेन विधिना हिताहारविहारवान् ।। स्नुह्यर्कदन्तीधववतिफली
अन्नपानं यथा सात्म्यं कुर्वनित्यं निरामयः ।
उदरेषु च सर्वेषु शोथेषु विविधेषु च ॥ शोफारिपाशोऽशनकन्दकन्दः ।
अर्शःसु च विशेषेण पाण्डुरोगे सकामले । माणत्रियामाग्निकवाणरण्डा तालं तथा मारिपारिभद्रौ ॥
विधिनोक्तेन कुर्वाणो नरो रोगान विन्दति ।। प्रत्येकशः क्षारचतुः पलांश
__सेहुंड ( स्नुहो-थूहर ), आक, दन्ती, धव, तथा पलाशस्य समेः समः स्यात् ।
भिलावा, फंजी ( भरंगी ), पुनर्नवा (बिसखपरा), चतुर्गुणे क्वाथजलाष्टशेषे
बरना, असना, जिमीकन्द, विदारीकन्द, मानकन्द पचेद्विधिज्ञा विधिशुद्धलोहम् ॥
हल्दी, चीता, सरफोंका, मूषाकर्णी, ताड़, तुलसी चूर्णीकृतं तत्पुटितं पुटेन
और पारिभद्र ( फरहद या नीम ); इनका क्षार
२०-२० तोले और पलाश (ढाक) का क्षार सबके तन्तुच्युतं षोडशिकं पलानाम् । वर्षाभूभल्लातकवहिदन्ती
बराबर लेकर सबको चारगुने ( ८ गुने ) पानीमें त्रिवन्तीरविद्धमूलम् ॥
पका और आठवां भाग शेष रहने पर उसमें १
सेर लोह भस्म तथा निम्न लिखित काथ और १-१ कञ्चुकी तालमूली च पीवरी गिरिकर्णिका । मीलिनी बृहतीपत्रं शम्पाकं विजया समम् ।।
सेर स्नुही तथा आकका दूध एवं २ सेर घी डाल चतुष्पलांशं क्वथिताष्टशेष
कर ताम्र पात्रमें पकावें । स्नुपर्कदुग्धेन पलाष्टकेन ।
क्वाथ-पुनर्नवा, भिलावा, चीतामूल, दन्ती. दत्त्वा पवेत्ताम्रमये सुपात्रे
मूल, निसोत, द्रवंती, आककी जड़, विधारेकी जड़, पलैर्द्विरप्टै विषस्तथैव ।।
सरफोंकाकी जड़, तालमूली ( मूसली), शतावर, अमृनि चूर्णानि च सिद्धशीते
कोयल, नीलकी जड़, कटेलीके पत्ते, अमलतासका क्षिपेत्तथा लोहरजः समानि ।
गूदा और भांग २०-२० तोले लेकर फूटकर लवणानि च सर्वाणि क्षारः पञ्चोषणानि च ॥ आठ गुने पानोमें पकावें और आठवां भाग शेष मरिचं चाजमोदा च हिमुभल्लातकानि च। | रहने पर छान लें । चित्रकं तालमूलश्च गवाक्षी त्रिताऽमृता ॥ जब पकते पकते अवलेहके समान गाढ़ा हो वर्शभूः मूरणो मानो विडङ्गं दन्ति:न्धिकम् । जाय तो ठंडा करके उसमें निम्न लिखित ची का mit माक्षिकचूर्णस्य कङ्कष्ठकशिलाजतोः ॥ चूर्ण मिला।गु.लोगन्धकस्यापि पारदस्य पलं पृथक् । पांचों नमक, जवाखार, सजीखार, सुहागा, शीते पलाष्टक क्षौद्रं दत्वा मधुघृतान्वितम् ।। । पोपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सोंठ, काली मिर्च
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