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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ककारादि-रसप्रकरणम् (२८३) हरताल, शुद्ध मीठा तेलिया और सुहागेकी खील । तक्रेण श्लेष्मवातोत्थे वातपित्त घृतान्वितम् । ४-४ भाग लेकर चूर्ण करके स्वच्छ खरल में | श्लेष्मपित्ते चाकेण निर्गुण्ड्या सान्निपातिके॥ जयन्ती, भांगरा, पाठा, बांसा, अगस्ति, कलिहारी | फलत्रयेण शूलेषु विषमेषु ज्वरेष्वपि । और चीतेके रसकी १-१ भावना दें। फिर सुखा- | आर्द्रकेणाथ वा दद्याद्वह्निमांद्ये विशेषतः ।। कर अद्रकके रसकी ७ भावना देकर रक्खें। | अभिष्यंदे शिरःशूले गायत्री बोल संयुतम् । इसे २-३ रत्तीकी मात्रानुसार शहद और | एकांगे च धनुर्वाते क्षीरयुक्तं च पीनसे ॥ पीपल या कालीमिर्च तथा घीके साथ सेवन कराने | पांडुरोगे क्षये कासे मरिचाज्यश्च कामले । से राजयक्ष्माका नाश होता है। अजमोदाविडंगैश्च नाभिशूलेऽग्निमांद्यके । ___ सन्निपातमें अद्रकके रसके साथ और गुल्म | रूक्षज्वरेऽरुची देयाकदलीफल संयुतः । अथवा शूल रोगमें जमाल गोटे के चूर्णके साथ | बोलेनाऽर्धकटीशूले भाषितं नागबोधिना ॥x सेवन करना चाहिये। शुद्ध पारा, रूपामक्खी भस्म, कांतिसारलोह पथ्य-बल्य, हृद्य और रसायन पदार्थ । भस्म, अभ्रकभस्म, सीसाभस्म, स्वर्णभस्म और परहेज़-खटाई, नमक, हींग, छाछ और | पृथ्वीभट प्रत्येक वस्तु समान भाग तथा शुद्ग विदाही पदार्थ । गन्धक सबके बराबर । सबको घोटकर विद्याधर [९४६] कनकसुन्दरो रसः (४) यन्त्र द्वारा अरने उपलों में पुट दें, फिर स्वांग शीतल (र. र. स. । अ. १५; र. प्र. सु; अ. ८) होने पर निकाल कर उसमें समान भाग त्रिकुटेका स्याद्रसं धौतमाक्षीकं कांतानं नागहाटकम् । | चूर्ण मिलावें। पृथ्वीभटेन संतुल्यं सर्वतुल्यं च गंधकम् ॥ | यह बवासीर, कमर की पीड़ा, नेत्र पीड़ा, दत्वा विद्याधरे यंत्रे पुटेदारण्यकोत्पलैः। खाङ्गशीतलमुद्धृत्य त्र्यूषणेन विमिश्रयेत् ॥ सन्निपात, क्षय, खांसी, श्वास, मन्दाग्नि, ज्वर, अर्शोव्याधौ कटीशूले चक्षुःशूले च दारुणे। कर्णशूल, शिरशूल, दन्तपीड़ा, पीनस, तिल्ली, हृदय की पीड़ा, प्रन्थिवात, एकांगवात (अधरंग) धनुसत्रिपाते क्षये कासे श्वासे मंदानले ज्वरे॥ कर्णशूले शिरःशूले दंतशूले प्रयोजयेत् ।। ति, कंपवात, मूर्छा, सब प्रकारके विषम ज्वर पीनसे प्लीह्नि हृच्छ्ले ग्रंथिवाते च दारुणे॥ तथा अन्य अनेक रोगों का नाश करता है। एकांगे वा धनुर्वाते कंपवाते च मूर्छिते। इसे १ रत्ती की मात्रानुसार यथोचित अनुज्वरांश्च विषमान्सर्वान्हंति रोगाननेकधा॥ | पान के साथ सेवन कराना चाहिए एवं पथ्य सेवितः पथ्ययोगेन रसः कनकसुंदरः।। पालन कराना चाहिये। गुञ्जामानं ददीतास्य यथा युक्तानुपानतः॥ ___x स्वर्णभस्म ८ माशा, सूत १२ निष्क. घृतेन संयुतो वाते मधुना पैत्तिके ज्वरे। । । | लोहभस्म ८ निष्क, नागभस्म २ तोला, विष पिप्पल्या श्लैष्मिके देयं पित्तोद्भूते च चंदनम् ॥ तथा गन्धकका अभाव है-र. प्र. सू. For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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