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(२८४)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
इस रस को वातज्वर में घृत के साथ, । गोला बनाकर पुटपाक करे । फिर उसमें त्रिकुटा, पित्तज्वर में शहद या चन्दन के साथ, कफ ज्वर चीता, बायबिडंग और शुद्ध मीठे तेलिये का चूर्ण में पीपल के चूर्णके साथ, कफवात ज्वर में छाछ । आधा आधा भाग और नवीन काकड़ा सींगी तथा के साथ, वातपित ज्वर में घृत के साथ, कफ पित्त । देवदारु उपरोक्त रस के बराबर मिलाकर बकरी के ज्वर में अदरक के रसके साथ, सन्निपात में संभालु मूत्र में घोटकर १-१ रत्ती की गोलियां बनावें । के रस के साथ, शूल और विषमज्वर में त्रिफला के इनके सेवन से कफ के कोप से उत्पन्न हुआ साथ, मन्दाग्नि में अदरक के रस के साथ, अभि- भयंकर कुष्ठ, वातज तथा कफज त्वग्विकार, गुदप्यन्द (आंखों का दुखने आना) और शिर शूल रोग (बबासीर आदि) और अग्निमांद्य का नाश में खैरसार और बोल (मुरमुकी) के साथ, एकांग, | होता है। (पक्षाघात) धनुर्वात और पीनस में दूध के साथ, [९४८ कन्दर्परसः (भै. र, । औप. मे.) पांडु, क्षय, खांसी और कामला में कालीमिर्च के | रसं गन्धं प्रवालच काञ्चनं गिरिमृत्तिका । चूर्ण और घी के साथ, नाभिशूल और अग्निमांद्य | वैक्रान्तं रजतं शई मौक्तिकच समं समम ॥ में अजमोद तथा बायबिडंग के चूर्ण के साथ, न्यग्रोधस्य कषायेण भावयित्वा च सप्तथा । रूक्ष ज्वर और अरुचि में केले की फली के साथ | वल्वोन्माना वटीं कृत्वा त्रिफलाकाथवारिणा॥ तथा कमर के आधे भाग में शूल हो तो बोल के | सुरप्रियस्यार्जुनस्य काथेनाभाम्भसापि वा। साथ सेवन कराना चाहिए।
औपसर्गिकमेहस्य शान्त्यर्थ विनियोजयेत् ॥ [९४७] कनकसुंदरो रसः (५) ____ शुद्ध पारा,शुद्ध गन्धक, मूंगाभस्म, सोनाभस्म, (र. र. स. । अ. र.)
गेरू, वैक्रान्तभस्म, चांदी भस्म, शंख भस्म और मोती समतुलकनकोत्थव्योमसवोत्थपिष्टीं । भस्म बराबर बराबर लेकर बड़ (बरगद) के क्वाथ द्विगुणवलिसमेत गोलमध्ये विपाच्य ॥ की सात भावना देकर १-१ बल्ल (२-३ रत्ती) त्रिकटुदहनवेल्लैर्वत्सनाभभागार्धभागैः ।
की गोलियां बनावें। रससमनवशृंगीदारुयुक्तः समस्तैः ॥
इन्हे औपसर्गिकमेह (सूजाक) की शांति के अजसलिलविपिष्टैगुंजया तुल्यगोलः ।
| लिए त्रिफला, देवदारु, अर्जुन या कीकर के क्वाथ कुपितकफसमुत्थं हंति कुष्ठं गरिष्ठम् ।।
| के साथ सेवन कराना चाहिए। तदपरमथ वात श्लेष्मजत्वग्विकारम् । [९४९] कन्दर्पसुंदरो रसः । गुदगदमपि सर्व वह्निमांद्य सुनिंद्यम् ।।
(र. रा. सु. रसा. र. प्र. सु.) तुष्टेन शंभुना दिष्टः रसोऽयं कनकसुंदरः। सूतां वज्रमहिमुक्ता तारं हेमसिताभ्रकम् । त्वग्विकारविनाशाय कुबेराय महात्मने ॥ | रसैकासकानेतान् मर्दयेदरिमेदजैः ॥
सोने की भस्म और अभ्रक सत्व १-१ भाग | प्रवालं चूर्णगन्धस्य द्विद्वि कर्षो विमिश्रयेत । तथा शुद्ध गन्धक ४ भाग लेकर खरल करके | प्रवालं चूर्णगन्धस्य विमर्य मृगशृंगके ॥
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