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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[आकारादि.
एकादशाहेऽस्य तनो व्यतीते
जब आमले स्विन्न हो जाएं ( उसीज जाएं) तो पतन्ति केशा दशना नखाश्च ॥ उन्हें निकालकर घी और शहद के साथ पेट भरकर अथाल्पकैरेव दिनैः सुरूपः
खाना चाहिये । इसके पश्चात् पका हुवा दूध खीष्वक्षयः कुअरतुल्यवीर्यः। इच्छानुसार पीना चाहिये । इसी प्रकार यह प्रयोग विशिष्टमेधावलबुदिसत्वो
१ मास तक करना चाहिये । (अन्य सब प्रकारभवत्यसौ वर्षसहस्रनीवी ।। | का आहार बन्द रखना चाहिये।) इस प्रयोग दामलकं शीतमम्लं पित्तकफापहम् ॥ . कालमें परहेज पूरी तरह रखना चाहिये और शीतल
पलाशके निरोग ( कृमि आदि रहित ) और | जल हाथसे भी न छूना चाहिये । आई (रसपूर्ण) वृक्षको तनेके उपरसे ( जड़के इस प्रकार यह प्रयोग करनेसे ११ दिन थोड़ा ऊपरसे) काट कर उसमें दो हाथ | पश्चात् केश, दांत और नख गिर जाते हैं एवं गहरा गढ़ा करें और उसमें उत्तम ताजे आमले| थोड़ेही दिनों पश्चात् ( नवीन केशादि उत्पन्न भर दें तथा उसके मुंह पर और चारों ओर जड़ होकर) शरीर सुरूपवान हो जाता है । फिर खी. तक दाभ घास लपेटकर कमलिनी की जड़की मिट्टीका समागमकी अत्यन्त शक्ति आ जाती है। शरीर (१ भंगुल मोटा ) लेप करदें एवं उसके चारों हाथीके समान बलशाली हो जाता है; मेधा, बुद्धि ओर गायके अरने उपले (वनकण्डे) लगाकर उनमें और सत्व ( मानसिक बल ) की विशेष वृद्धि आग लगा दें।
होती है और १ सहस्र बर्ष की आयु प्राप्त होती है। यह कार्य निर्वात स्थानमें होना चाहिये। आमला शीतल, अम्ल और पित्तकफनाशक है।
इत्याकारादिकल्पप्रकरणम्
अथाकारादिमिश्रप्रकरणम (९०५८) आखुकादियोगः । (९०५९) मामलक्यादिस्नानम्
(यो. २. । कृम्य.) आखुकर्णीदलैः पिष्टै: पिष्टकेन च पकान् । __(व. से. । नेत्ररोगा.) भुक्त्वा सौवीरकं चानु पिबेत्कृमिहरं परम ॥
" | आमलैः सततं स्नानं परं दृष्टिषलावहम ॥ मूषाकर्णी के पत्तों को पीसकर ( चावलोंको या मंगकी ) पिटीमें मिलाकर पड़े बनावें । ये पडे । आमले के कल्कको शिर और शरीर पर खाकर सौवीरक कांजी पोनेसे कृमि नष्ट हो जाते हैं। | मलकर स्नान करनेसे दृष्टि शक्ति बढ़ती है ।
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