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खकारादि-रस
(३३७)
कान्तपात्रस्थितं रात्रौ तिलजप्रतिवापकम् । । पहिले खपरिया को कुलथी और वटांकुरों के निषेवितं निहन्त्याशु मधुमेहमपि ध्रुवम् ॥ क्वाथ में पृथक् पृथक् (दोला यन्त्र विधि से) स्वेदन पिचं क्षयं च पाण्डं च श्वयधु गुल्मेव च।। करे; इसके बाद उसमें पान (अथवा ढाक के पत्ते) रक्तगुल्मं च नारीणां प्रदरं सोमरोगकम् ॥ । गुड़ और सुहागे का चूर्ण मिलाकर त्रिफला के क्वाथ योनिरोगानशेषांश्च विषमाख्याज्वरानपि। में घोटें । इसके पश्चात् उसे मिट्टी के मूषा में भरकर रजाशूलं च नारीणां कासं श्वासश्च हिमिकाम्।। अग्नि में रखकर अच्छी तरह तपावें जब सफेद धुवां
खपरिया भस्म और कान्तिसार लोह भस्म | निकलने लगे तो मूषा को अग्नि से बाहर निकाल बराबर बराबर लेकर चर्ण करें।
कर बार बार जमीन पर उल्टा करें तो उसमें से यह चर्ण ८ गुंजा प्रमाण लेकर रात को शीशे के समान खपरिया का सत्व निकल आयेगा। लोहे के बरतन में त्रिफले के काथ में भिगोदें फिर [११०७] खोटाभिधरसः प्रातः काल उसमें तिल तेल का प्रक्षेप देकर पियें। (र. चि. म.। ४ स्तबकः) इसके सेवन से मधुमेह, पित्त, क्षय, पाण्डु,
खपरे पारदं कृत्वा चुल्लिकोपरिखपरम् । सूजन, गुल्म, रक्तगुल्म, प्रदर, सोमरोग, सब प्रकार
घृष्टं दृढतरं कुर्याद्वहिं प्रज्वालयेदधः ।। के योनिरोग, विषमज्वर, स्त्रियों का रजःशूल (मासिक
| गन्धकं चूर्णितं सूक्ष्म स्वल्पं स्वल्पं च निक्षिपेत् । स्राव के समय शूल होना) खांसी, श्वास और
| द्विगुणे जारिते गन्धे रसः खोटो भविष्यति ।। हिचकी का नाश होता है।
कृष्णोज्वलप्रभः सम्यग्धटिकाद्वयमानतः । [११०६] खर्परसत्वम्
खोटः कार्येषु योक्तव्यः सर्वरोगेष्वसंशयम् ॥ (र. चि. म. । ५ स्तबकः)
___एक ठीकरे में पारद और खपरिया को डाल खपरं स्विद्यते पूर्व कौलत्थेन जलेन च ।
कर उसे चूल्हे के ऊपर रखकर नीचे अग्नि जलावें वटारोहजलेनाऽपि पर्णचूर्णेन संयुतम् ॥ और उसमें थोड़ा थोड़ा गन्धक का महीन चूर्ण गुडटंकणसंमिश्रं त्रिफलाक्काथमर्दितम्। । डालकर घोटते रहें । जब दो गुनी गन्धक जल मृन्मये कूपके धृत्वा धाम्यमानं भृशं च तत् ॥ जाय तो उतार लें । (दो गुना गन्धक २ घड़ी में श्वेतधूमोद्गमे जाते तत्पश्चाबहिरानयेत् ॥ जल जायगा) इसका रंग स्याह और चमकदार कूप्यकं च तथा भूमौ नामयेच्च पुनः पुनः।। होगा। यह समस्त रोगों में प्रयोग किया जा सत्त्वं खर्परकस्यापि नागरूपं पतत्यधः ॥ | सकता है ।
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