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पूर्णप्रकरणम्
परिशिष्ट
(९२३१) कृष्णादिक्वायः केशराजमुनिषण्णकट (रा. मा. । विषा. २८)
दाडिमस्य फलमर्जुनोद्भवम् । कृष्णाहोल्लक्वाथस्तरचूर्ण वा दिनत्रयं पीतम् ।। क्याथ एष परिशी लिंतो नृणां घुमां निहन्ति नूनं दारुणमपि कृत्रिम गरलम् ।। हन्ति साममथ शूलमद्भुतम् ॥ ___ पोपल और अंकोल का क्वाथ या चूर्ण पीने |
___मंगरा, सुनिषण्णक (चौपतिया), जल चौलाई, से ३ दिनमें दारुण कृत्रिम विष भी अवश्य
अनारका फल और अर्जुनके फल समान भाग लेकर नष्ट हो जाता है।
काथ बनावें । यह काथ आम और शूल युक्त अति(९२३२) केशराजादिक्वायः
| सारको नष्ट करता है । यह एक अद्भुत प्रयोग है। (व. से. । अतिसारा )
इति ककारादिकषायप्रकरणम्
अथ ककारादिचूर्णप्रकरणम् कंकुष्ठचूर्णम्
(९२३४) कटुकादिकल्क: (पृ. यो. त. । त. १०५ ; व. से. उदरा.) (ग, नि. । ग्रहण्य. ३) रस-प्रकरणमें देखिये।
| कटुकेन्द्रयवौ पाठां कुटजत्वासाननम् । (९२३३) कटभ्यादियोगः
| धावक्यतिविषे शुण्ठी मुस्तां पिष्ठाच वारिणा ।। (पृ. मा. । विषा. ; व. मे. । विषा )
विष्टम्भमरचि रक्त दाहं च गुदवेदनाम । कारभ्यर्जुनसैरेयशेलक्षीरिद्रुमत्वचः । कषायकल्कचूर्णाः स्युः कीटलूतात्रणापहाः ॥
पित्तोत्थग्रहणी हन्ति मधुना सह भक्षितः ।। छोटी मालफंगनी, अर्जुनकी छाल, सैरेय कुटकी, इन्द्रजौ, पाठा, कुड़ेकी छाल, रसौत, ( कटमरैया ) लिहसोड़ा और क्षीरोद्रम ( बड़, | धायके फूल, अतीस, सोंठ और नागरमोथा; इनके पीपल, पिलखन, गूलर और सिरस ) की छाल | समान भाग मिलित चूर्णको पानीके साथ पीसार समान भाग लेकर एकत्र कूट लें।
शहद में मिलाकर चाटनेसे विष्टम्भ, अरुचि, रक
स्राव, दाह, गुदाकी पीड़ा और पित्तजग्रहणी रोग __इसका कषाय, कल्क या चूर्ण बनाकर प्रयुक्त
| का नाश होता है। करनेसे कीड़ों और मकडी के काटेसे उत्पन्न अण नष्ट होते हैं।
(मात्रा-३ माशा ।)
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