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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ९८ ) | चीनी, इलायची, नागकेशर, त्रिफला, लौंग, जाय फल और इलायची । यह सब चीजें समान भाग लेकर इनका चूर्ण तथा उपरोक्त लोह भस्म सबके बराबर लेकर सबको एकत्र खरल करे । इसे ४ माशेकी मात्रामें मधुके साथ सेवन करने से क्षय, और खांसीका नाश होता है । व्यवहारिक मात्रा - २ रत्ती । भैषज्य रत्नाकर [२७६] अग्निसन्दीपनो रसः (र. रा. सु, भै. र । अजी.) भारत । षडूषणं पञ्चपटु त्रिक्षारं जीरकद्वयम् । ब्रह्मदभोग्रगन्धा च मधुरी हिङ्गुचित्रकम् ।। जातीफलं तथा कुष्ठं जातीको त्रिजातकम् चिश्वाशेखरिकक्षारममृतं रसगन्धकौ ॥ लोहमभ्रं च वङ्गं च लवङ्गं च हरीतकी । समभागानि सर्वाणि भागौ द्वावम्लवेतसात् ॥ शङ्खस्य भागाश्चत्वारः सर्वमेकत्र भावयेत् । कानपञ्चकस्य चित्रापामार्गयोस्तथा ॥ अम्ललोणीरसेनैव प्रत्येकं भावयेत् त्रिधा । त्रिसप्तकृत्वो लिम्पाकरसैः पश्वाद्विभावयेत् ॥ बदराभावटी कार्या योक्तव्या सन्ध्ययोर्द्वयोः । अनुपानं प्रदातव्यं बुध्या दोषानुसारतः ॥ अग्निसन्दीपनो नाम रसोऽयं भुविदुर्लभः । दीपयत्याशु मन्दाग्निजीर्ण च विनाशयेत् । अम्लपित्तं तथा शूलं गुल्ममाशु व्यपोहति । सुहागा, पीपल, पीपलामूल, चव्य, चित्रक, सोंठ, काली मिर्च, पांचोंनमक, जवाखार, सज्जीखार, सफेद जीरा, काला जीरा, अजवायन, बच, सौंफ, भुनी हुई हींग, चीतेकी छाल, जायफल, कूठ, जावित्री, दालचीनी, तेजपात, इलायची, इमली का क्षार, चिरचिटेका क्षार, शुद्ध बच्छनाग, शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, लोहभस्म, अभ्रक भस्म, बंगभस्म, | Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लौंग और हरड़का चूर्ण १-१ भाग । अम्लवेत २ भाग और शंख भस्म ४ भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कज्जली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सबको कूट पीसकर पंचकोल, चिता, ओंगाके काढे और खट्टे लोनिया करकी ३ - ३ भावना और नींबूके रसकी २१ भावना देकर छोटे बेरके समान गोलियां बनाकर रक्खे । प्रातः काल और सायंकाल दोनों वक्त एक दो गोलियां दोषके अनुसार अनुपान के साथ सेवन करने से अग्नि शीघ्र ही दीप्त हो जाती है। यह संसार दुर्लभ अग्नि सन्दीपन रस मंदाग्नि, अजीर्ण, अम्लपित्त, शूल और गोला आदि का शीघ्र नाश करता है। [२७७] अचिन्त्य शक्तिरसः (र. रा. ( ज्वरे सुं, भै. र ।) रसगन्धकयोग्रं प्रत्येकं माषकद्वयम् । भृङ्गकेशाख्यनिर्गुण्डी मण्डूकीं पत्रसुन्दरः ॥ श्वेतापराजितामूलं शालिश्चकालमारिषम् । सूर्यावर्त्तः सितश्चैषां चतुर्माषकसम्मितेः ॥ प्रत्येक स्वरसैः श्लक्ष्णं शिलायामवधानतः । स्वर्णमाक्षिकमाषञ्च दत्वा मरिचमापकम् ॥ नेपाल ताम्रदण्डेन घृष्ट्वा तत्कज्जलद्युतिम् । वीमुपमाका छायाशुष्का तु रक्षिता ।। प्रथमे वटिकास्तिस्रः कृत्वा नवशरावके । ततः समर्पणं सूर्य्यं पूजयित्वा प्रणम्य च । वारिणा गालयित्वा तु पातुं देयश्च रोगिणे॥ स्वेदोपवासविहिते क्लान्ते चात्यबले तथा । द्वितीयेह्निवटीयुग्मं वटीमेकां तृतीयके ॥ यावत्यो वटिका देयास्तावञ्जलशरावकम् । लुलायदधिसंयुक्तं मक्तं भोज्यं यथेप्सितम् ॥ पथ्यमग्निबलं वीक्ष्य वारिभक्तरसं तथा । शिरवलनशुलादौ तैलं नारायणादि च ॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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