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(१७०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
सेम्भल का गोंद (मोचरस) प्रत्येक का चूर्ण ५-५ | मिट्टीके पात्र में यथा विधि सन्धान करें। फिर १ तोला, दाख १०० तोला, धाय के फूल १ सेर मास पश्चात् निकाल कर छानकर रक्खें । यह
और पानी ६४ सेर, खांड ६। सेर, शहद ६। सेर। | रक्तपित्त, पाण्डु, कुष्ठ, प्रमेह, बवासीर, कृमि और सबको एकत्र करके जटामांसी और मरिचसे धूपित ' शोथ नाशक है ।
अथ उकारादि लेपप्रकरणम् [५०२] उपदंशलिंगलेपः (यो. र. । उप.) | त्रिफलामेव सेवेत ताम्रभस्मयुतां व्रणी ॥ रसकर्पूरगडाणं मर्दयेत्खदिराम्बुना। तद्वा तत्तलमाकपेनलीयन्त्रेण बुद्धिमान् । प्रक्षालयेद्वारिणा च शुष्के लेपस्तु वारिणा ॥ तुल्यसैन्धवपङ्केन बालुकापादपूरणात् ॥ लिंगलेपो व्रणं हन्ति त्रिदिनानात्र संशयः॥ तत्तललेपनाद्वाऽपि व्रणा गच्छन्त्यशेषताम् ।
६ माशे रसकपूर को खैरके रसमें घोटकर | शुष्कप्रायेषु जातेषु वराचूर्णमवचूर्णयेत् ।। पानीसे धोयें फिर सूख जानेपर पानीमें मिलाकर । इच्छेद्भूयोऽपुनर्भावमुपदंशं यदि व्रणी। लिंगपर लेप करें। इससे ३ दिन में उपदंशके । वराकाथं भजेन्मासं गन्धकं वा समाक्षिकम् ॥ घावोंका नाश होजाता है।
प्रत्यहं चित्रकक्वाथः पटुत्यागस्वतन्त्रतः।। [५०३] उपदंशस्फोटेऽवलेपः(यो. र. । उप.) लेप्यं वा ताल तैलं गान्धं वा समिश्रितम् । जातीफलविडङ्गानि रसकं देवपुष्पकम् । राल, मोम, गन्धाबिरोजा, इन तीनोंको आध समभागानि सर्वाणि नवनीतेन मर्दयेत् । आध पाव लेकर उमरूयन्त्रकी नीचेकी हांडीमें स्फोटानामुपदंशानां व्रणशोधनरोपणः ॥ | रखदे । दोनों हांडियों के मुखों को मिलाकर लोहेके
जायफल, बायबिडंग, रसकपूर और लौंग । बारीक तारोंसे खूब मजबूत बांधदे जिसमें कहीं से सबको समान भाग लेकर पीसकर नवनीत (नौनी | खसकने नहीं पावे । फिर उन तारोंके बन्धनके घी) में मिलाकर लेपकरने से उपदशके घाव शुद्ध ऊपर सात कपर-मट्टी करके सुखाले । इस डमरूहोकर भर जाते हैं।
यन्त्रको लिटाकर एसी युक्तिसे चूल्हेपर रखे कि [५०४] उपदंशहरो लेपः (रसा. सा.) जिसमें नीचेकी हांडीमें ही आंच लगे और ऊपरकी देवधूपमधूच्छिष्टश्रीवासान् समभागकान् । रीती हांडी चूल्हेसे दूर रहे । तब मन्दी २ आंच ढकायन्त्रे निधायाऽनुसन्धि तारैरयोमयैः॥ । लगाना शुरू करे, एक घण्टे के बाद चूल्हेसे बाहर बद्ध्वा गाढं च कुर्वीत मृत्पटान् सप्त तद्धरेत् । निकली हुई रीती (खाली) हांडीके तलभागको स्पर्श चुल्यां तिर्यग्ददीताऽनिं मन्दं हण्डी स्पृशेत्पगम् करके परीक्षा करे कि राल, मोम और गन्धाविरोज्ञात्वा स्पर्शासहं यन्त्रं शीतयेदवतार्य तत् । जेका सारभाग दूसरी हांडीमें उड़कर आया कि आज्यं तत्कर्दमोन्मानं तदद्वयं वन्हिगालितम् ॥ नहीं । जब हांड़ी ऐसी गरम होजाय कि उसमें उपदंशबणे लेप्यं क्षालयेत् त्रिफलाजलैः। हाथ नहीं लगा सके तब समझले कि उन तीनों
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