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रसपकरणम् ]
परिशिष्ट
.५६१
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अथ ककारादिरसप्रकरणम् (९४६३) कङ्कुपचूर्णम् गुदार्तिगुल्मव्रणशूलहृत्परं (वृ. यो. त. । त. १०५ ; व. से. । उदरा.) ।
प्रचक्षते शास्त्रविदः पुराणाः ॥ ककुष्ठचूर्णमुष्णाम्बु पीतं संरेच्य मानवम् ।
शुण्ठयम्भसा भाक्तिमेव । । अष्टाभ्योऽप्युदरेभ्यश्च द्रुतं कुर्याद्विनिर्गतम् ॥
काष्ठमायाति हि सत्यमुक्तम उष्ण जलके साथ कंकुष्ठ ( उसारे रेवन्द ) का चूर्ण खानेसे विरेचन होकर आठों प्रकारका सत्वाकृष्टिन च प्रोक्ता पर
काहि तत् ! उदर रोग नष्ट हो जाता है।
यवमात्र भजेदेन विरेक न संश..॥ (मात्रा-१ रत्ती से २ २०ी तक।)
क्षणादामज्वरं : नेत जाते गति विरेचने । (९४६४) ककुष्ठशोधनम् | ताम्बूलेन समं चैवं भक्षित सारयेद्धृवम् ।। (र. प्र. सु. । अ. ६ ; र. र. स. । पृ. अ. बबूलमूलिकाकाथं सौभाग्याजाजीसंयुतम् । ___३ ; आ. थे. प्र. । अ. १०)
भूयो भूयः पिबेद्धीमान् विषं कष्ठजं जयेत् ।। पर्वते हिमसमीपवर्तिनि
____ कंकुष्ट हिमालय के निकटवर्ती पर्वतों में होता जायतेऽतिरुचिरं कष्टकम् । है । यह देखने में सुन्दर मालूम होता है। एकमेव नलिकाभिधानक
कंपुष्ट दो प्रकारका होता है; एक तो नलिकारेणुकं तदनु चापरं भवेत् ।।
कार और दूसरा चूर्ण रूप। पीतवर्णमसणं च वै गुरु स्निग्धमुत्तमतरं प्रचक्षते ।
नलिकाकार कंकुष्ठ पीला, स्निग्ध और भारी
होता है । यह उत्तम माना जाता है । दूसरे प्रकारका श्यामपौतमतिहीनसत्व
। (चूर्ण रूप ) कंकुष्ठ ग्यामता लिये हुवे पीला होता शुकं हि कथितं द्वितीयकम् ।।
। है । इसमें सत्व बहुत कम होता है और इसीसे बदन्ति कष्टमयापरे हि ___ सधः प्रसूतस्य च दन्तिनः शकृत् ।
यह निकृष्ट होता है। तत्कृष्णपीताभमतीव रेचन
कोई कोई हाथीके नवजात बच्चे के मल को तृतीयमाहुर्विबुधा भिषग्वराः ॥
| भी तीसरी प्रकारका कंकुष्ठ कहते हैं । यह काले
पीले रंग और अत्यन्त रेचक होता है । फडठकं तिक्तकटूष्णवीय विशेषतो रेचनकं करोति ।
कंकुष्ट तिक्त, कटु, ऊष्ण और विशेष रेचक
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