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अकारादि-गुटिका
(३५)
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गन्धक २५ तोला, सोना मक्खी भस्म ३।। सेर, , रसतुल्यं प्रदातव्यं चूर्ण मरिचसम्भवम् । हरीतकी ६। सेर, आमला १२॥ सेर । इन सब शुमे शिलामये पात्रे घर्षणीयं प्रयत्नतः ॥ को एकत्र चूर्ण करके जम्बीरी नींबू , भांगरा, पुन- शुष्कमातपसंयोगाद्वटिकां कारयेद्भिषक् । नवा, पाताल गरुडी, भिलावा, चीता, हाथी सुण्डी, कलाय परिमाणान्तु खादेत्तां तु प्रयत्नतः॥ कलिहारी, दूधी तथा जलकुम्भी के रस में १-१
दृष्ट्वा वयश्चाग्निवलं यथाव्याध्यनुपानतः । दिन खरल करके शहद और घृत में मिला कर |
। कर हन्ति कासं क्षयं श्वासं वात श्लेष्मभवं रुजम् ।। चिकने बरतन में रक्खें। मात्रा ४--६ रत्ती ।
परं वाजीकरः श्रेष्ठो बलवर्णाग्निवर्द्धनः। यह त्रिदोषज अर्श का नाश करती है ।
| ज्वरे चैवातिसारे च शुद्ध एष प्रयोगरा ॥ [११५] अभ्रकादिवटी
(वृ. नि. र. भा. ४ सं. चि.) नातः परतरः श्रेष्ठो विद्यतेऽभ्ररसायनः । रसं गन्धं विषं व्योष टङ्कणं लोहभस्मकम्। चातुर्थके ज्वरे श्रेष्ठः सूतिकातकनाशनः॥ अजमोदाहिफेनं ज सर्वतुल्यं मृताभ्रकम् ॥ भोजन शयने पाने नास्त्यत्र नियमः कचित् । चित्रकत्वक्पायेण मर्दयेद्याममात्रकम् ॥ दधि चावश्यकं लक्ष्यं प्राह नागार्जुनो मुनिः।। मरिचामा वटीं कृत्वा खादेदेका जयेदसौ ।।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, अभ्रकभस्म, प्रत्येक १। चतुर्विधां च ग्रहणी रहस्यं तदिदं स्मृतम् ॥ ११ तोला सबकी कजली करके त्रिकुटेका चूर्णx __शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, शुद्ध विष, त्रिकुटा, मिलावे और फिर भांगरा, काला भांगरा, निर्गुण्डी, सुहागेकी खील, लोहभस्म, अजमोद (अजवायन) चीता. गोमा, जयन्ती, मण्डूक पर्णी (ब्राह्मीभेद), अफ्रीम, सब समानभाग, अभ्रक सब के बराबर । | भंग और श्वेत अपराजिताके पत्तोंके रसकी भावना इन सब को चीते की छाल के काथ में १ पहरामा
थि म १ पहर दे । फिर इसमें पारदके बराबर कालीमिर्च डालनी तक खरल करके काली मिर्च के बराबर गोलियां चाहिये इसके बाद पत्थरके खरलमें घोट कर और बनावें । प्रतिदिन १-१ गोली खानेसे ४ प्रकारकी
| धूपमें सुखाकर उर्दके बराबर गोलियां बनावे । ये संग्रहणीका नाश होता है।
गोलियां यथोचित अनुपान के साथ आयु, अग्नि, [११६] अभ्रवटिका (१) (रा. रा. सु.)
बल आदिके अनुसार सेवन करने से खांसी, क्षय, अथ शुद्धस्य सूतस्य गन्धकस्याभ्रकस्य च।
| श्वास, कफ, वायुके रोग और ज्वर तथा अतिसारका प्रत्येकं कर्षमानं तु ग्राह्यं रसणुणैषिणा ॥ ततः कालिकां कृत्वा व्योषचूर्ण प्रदापयेत् ।
नाश करती हैं । यह योग अत्यन्त वाजीकरण और केशराजस्य भृङ्गस निर्गुण्डयाचित्रकस्य च ॥
बल तथा जठराग्नि वर्द्धक है। चातुर्थिक ज्वर, ग्रीष्मसुन्दरकस्याथ जयन्त्याः स्वरसन्तथा।।
सूतिका रोगका नाश करता है । इसके ऊपर दही मण्डूकपण्योः स्वरसं तथा शक्राशनस्य च ॥ सेवन करना चाहिये । श्वेतापराजितायाश्च स्वरसं तथा पर्णसम्भवम्। त्रिकुटे का पूर्ण सघ चीजों के बराबर दापयेत्तत्र तुल्यं च विधिज्ञः कुशलो भिषक् ॥ या प्रत्येक के बराबर लिया जा सकता है।
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