________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(६०)
भारत-भैषज्य रत्नाकर
[१६५] अमृतादि घृतम् (३) । उत्तानं वापि गम्भीरं त्रिकजबोरुजानुजम् ।
(वृ. नि. र., बं. से. वातर.) क्रोष्टुशीर्षे महाशूले चामवाते सुदारुणे ॥ अमृतायाः कषायेण कल्केन च महौषधम् । महारोगोपसृष्टस्य वेदना चाति दुस्तरा । मृद्वग्निना घृतं सिद्ध वातरक्तहरं परम् ॥ मूत्रकृच्छमुदावर्त प्रमेहं विषमज्वरान् । आमवाताळ्यवातादीन कृमिकुष्ठवणानपि। एतान्सर्वान निहन्त्याशु वातपित्तकफोत्थितान् । अशॉसि गुल्मांश्च तथा नाशयत्याशु योजितम्॥ सर्वकालोपयोगेन बलवर्णाग्निवर्द्धनम् ॥
गिलोय के कषाय और सोंठके कल्क से मृदु | अश्विभ्यां निर्मित श्रेष्ठं घृतमेतदनुत्तमम् ॥ अग्निपर सिद्ध घृत वातरक्त नाशक श्रेष्ठ तथा | गिलोय, मुल्हैठी, दाख, त्रिफला, सोंठ, खरैटी, आमवात, उरु स्तम्भ, कृमि, कुष्ठ, व्रण, अर्श, और बासा, अमलतास, सफेद पुनर्नवा, देवदारु, गोगुल्म रोग नाशक औषधि है।
खरू, कुटकी, पीपल, खम्भारी के फल, रास्ना, [१६६] अमृतादिधृतम् (४)
तालमखाना, एरण्डमूल, देवदारु, बला और नीलो___(वृ. नि. रयो. र. वातर.) | फर, इन सब के कल्क में १ सेर घृत को १ सेर अमृतायाः पलशतं जलद्रोणे सुशोषितम् । आमले के रस तथा ३ सेर दूध के साथ पाक घृतमयं विपक्तव्यं कल्कानष्टपलानि च ॥ करे। यह घृत पिलाने या भोजन के साथ सेवन चतुर्गुणेन पयसा वातासृक्कुष्ठनाशनम् ।। करने से बहु दोषोंसे उत्पन्न हुए प्रबल वातरक्त, कामलापाण्डुरोगनं प्लीहकासज्वरापहम् ॥ | जो जंघा, जानु और त्रिक तक फैल गया हो,
६। सेर गिलोय को ३२ सेर जल में पका- | चाहे उत्तान हो या गंभीर को नष्ट करता है इसके कर चौथाई रहने पर उस काढ़े और गिलोय के | अतिरिक्त यह क्रोष्टुशीर्ष, दारुण आमवात, कुष्ठा४० तोला कल्क तथा ८ सेर दूध के साथ २
| दि की भयंकर वेदना मूत्रकृच्छू, उदावर्त, प्रमेह,
दि की भयंकर वेदन सेर घृत सिद्ध करे। यह घृत वातरक्त, कुष्ठ, का-विषम ज्वर आदि का नाश करता और सर्व का. मला, पाण्डु, तिल्ली, खांसी, और ज्वर का नाश | लोपयोगी है तथा बलवर्ण और अग्नि की वृद्धि करता है।
करता है। इस श्रेष्ठ घृतका निर्माण अश्विनि[१६७] अमृतादिधृतम् (५) (वृ. नि. र.)
कुमारोंने किया था। अमृता मधुकं द्राक्षा त्रिफला नागरं बला। बासारग्वधवृश्चीरदेवदारुत्रिकण्टकम् ॥
[१६८] अमृतादि गुग्गुलु घृतम् (र.र.) कटुकारोहिणी कृष्णा काश्मर्याश्च फलानि च। अमृतवृषपटोलं चन्दनं मुस्ततिक्ता, रास्नाक्षुरकगन्धर्वदेवदारुबलोत्पलैः ॥ __ कुटजकुटजबीजं पूतनाकाण्डतिक्ता । कल्कैरेभिः समं कृत्वा सर्पिःप्रस्थं विपाचयेत् । दहनविटपिमूलं दीर्घमूला यवं च धात्रीरसः समो देयो पयस्त्रिगुणसंयुतः ॥ कलितरुफलधात्री सर्वतोभद्रविश्वम् ॥ सम्यक् सिद्धं च विज्ञाय भोज्ये पाने च शस्यते। समधरणधृतानां काथमादाय चैषां, महुदोषोत्थित्वं वातरक्तेन सह मूर्छितम् ॥ । विधिवदिति पचे सर्पिषः प्रस्थमेकम् ।
For Private And Personal Use Only