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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट (८८२४) अश्वगन्धाधमुद्वर्तनम् श्रृंगकी भस्मको शहद में मिलाकर तकके साथ (ग. नि. । राजय. ९)
| पीनेसे समस्त प्रमेह नष्ट हो जाते हैं।
( बीजोंका चूर्ण ६ मासे । शृंग भन्म.२ रत्ती ) अश्वगन्धा ह्यपामार्गों नाकुली गौरसर्षपाः।। तिला बिल्वं च कल्क: स्यात्क्षये तूद्वर्तनं परम् ।।
(८८२७) असीतकचूर्णम् .
(भा. प्र. । म. खं. २ आमवाता.) असगन्ध, अपामार्ग (चिरचिटा ), नाकुली
असीतकं मागधिका गुडूची कन्द, सफेद सरसों, तिल और बेल छाल समान ।
श्यामा वराही गजकर्णशुण्ठी। भाग लेकर चूर्ण बनावें और उसे पानीके साथ ।
समधृताः कृत्स्नमिदन्तु चूर्ण पीसलें ।
पिबेत्तदुष्णोदकमण्डयूषैः ॥ क्षय रोगीके शरीर पर इसकी मालिश करना । तन रसैर्मद्यमस्तुभिर्वा हितकारक है।
यथेष्टचेष्टस्य च भोजनस्य । (८८२५) अश्वत्थफलादियोगः अपवाहुकं गृध्रसि खअवातं (व. से. । वाजीकरणा.)
विश्वाचितूनीप्रतितूनिरोगान् ॥ अश्वत्थ फलशुङ्गाग्रमूलं त्वग्भिः शृतं पयः ।
जङ्घामवातादितवातरक्तं पीत्वा सशर्करश्चैव वृद्धोऽपि तरुणायते ॥
कटिग्रहं गुल्मगुदामयश्च ।
प्रकोष्ठकं पाण्डुगरोग्रशोफं अश्वत्थ ( पीपल वृक्ष )के फल, अंकुर और |
हन्यादुरुस्तम्भमुदीर्णवेगम् ॥ छालसे सिद्ध दूधमें खांड मिलाकर सेवन करनेसे
___ कोयल (अपराजिता), पोपल, गिलोय, काली वृद्ध पुरुष भी तरुणके समान हो जाता है।
| निसोत, बाराहीकन्द, गजकर्ण पलाशकी छाल (८८२६) अश्वत्थबीजादियोगः
और सांठ समान भाग लेकर चूर्ण बनावें। ( वृ. यो. त. । त. १०३ ; वै. म. र. । पटल ७) इसे उष्ा जल, मण्ड, यूष, तक्र, मांसरस, अश्वत्थबीजं हरिणस्य शृङ्गं
मद्य, या मस्तुके साथ पीनेसे अपबाहुक, गृध्रसि, तक्रेण पीतं मधुना सहैव । खञ्जवात, विश्वाची, तूनी, प्रतितूनी, जंघा गत प्रमेहजालं सहसैव हन्याद
आमवात, अर्दित, वातरक्त, कटिग्रह, गुल्म, गुदशाननं दाशरथी यथैव ॥
| रोग, पाण्डु, गरविष, उग्र शोथ और प्रबल उरुस्तअश्वत्थ (पीपल )के बोजोंका चूर्ण और हरिण ! म्भका नाश होता है।
इत्यकारादिचूर्णप्रकरणम्
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