________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
ककारादि-रस
(३१७)
वृक्ष (शागोन) के पंचांग के रस में घोटकर रात । भस्म १-१ भाग तथा हैडका चूण ४ भाग लेकर भर उसीमें भीगा रहने दें । फिर दूसरे दिन सत्या- | दण्डयन्त्र से कूटकर पटोलपत्र के स्वरसकी भावना नासी (रुस) के रसमें घोटकर रातभर उसीमें भीगा | देकर कपास के बीज (बिनौले ) के बराबर रहने दें। इसके पश्चात् यथा विधि लघुपुट दें, फिर | गोलियां बनावें। उसमें पांच दाने शुद्ध जमालगोटे के मिलाकर घोटें। इन्हें केवल पैत्तिक कृमिरोग में और कभी २
इसे दो रत्ती प्रमाण घी के साथ देने से कृमि | वातपित्तज कृमि रोग में ठंडे पानी के साथ ३ रोग और शूल नष्ट होता है।
| गोली की मात्रा से प्रयोग करना चाहिये । [१०४१] कृमिदावानलो रसः [१०४३] कृमिमुद्रो रसः (र. रा. सुं । कृमि.)
(र. रा. मुं. । कृमि) हिलः कर्षमानं स्यादन्ती बीजं तदर्धकम् । क्रमेण वृद्धं रसगन्धकाजअकक्षीरेण संमद्य दापयेद्भावना दश ।
मोदाविडङ्गं विषमुष्टिका च। माषमानं प्रदातव्यमर्कमूलरसं पुनः। पलाशबीजश्च विचूर्णमस्य प्रपिबेद्धिङ्गसंयुक्तं कृमिजालनिपातनम् ।। निष्कप्रमाणं मधुनावलीढम् ॥ कृमिदावानलो नाम नाशयेत्कृमि सत्वरम् ।। पिबेत्कषायं धनजं तदूर्व
शुद्ध शिंगरफ़ १। तोला और दन्ती के बीज रसोऽयमुक्तः कृमिमुद्राख्यः । ७॥ माशा लेकर आक के दूध की १० भावना दें। कमीनिहन्ति कृमिजांश्च रोगान्
इसे एक माशे * की मात्रानुसार सेवन कराने | संदीपयत्याग्निमयंत्रिरात्रात् ।। से कृमि अत्यन्त शीघ्र नष्ट होजाते हैं । अनुपान- शुद्ध पारा १ भाग, शुद्ध गन्धक २ भाग, दवा खाने के बाद आककी जड़ के रस मे हींग का अजमोद ३ भाग, बायबिडंग ४ भाग, शुद्ध कुचला चूर्ण डाल कर पिये।
५ भाग, और ढाकके बीज ६ भाग, लेकर चूर्ण करे। [१०४२] कृमिधूलिजलप्लवो रसः ___इसे ३ रत्ती की मात्रानुसार शहद में मिला (र. रा. सु.। कृमि.)
कर चाटें और ऊपर से नागरमोथे का क्वाथ पियें। पारदं गन्धकं शुद्धं वङ्ग शङ्ख समं समम्।। इसे ३ दिन तक सेवन करने से कृमि और उनसे चतुणी योजयेत्तुल्यं पथ्याचूर्ण भिषग्वरः ॥ उत्पन्न होने वाले रोग नष्ट होते तथा अग्नि प्रदीप्त दण्डयन्त्रेण निर्मथ्य पटोलस्वरसं क्षिपेत् । होती है। कार्पासवीजसदृशीं वटिकां कुरुयत्नतः॥ [१०४४] कृमिरोगारि रसः त्रिवटी भक्षयेत्मातः शीततोयं पिबेदनु।। (र. रा. सुं.। कृमि, रसे. सा. सं, धन्व.) केवलं पैत्तिके योज्याकदाचिवातपैत्तिकै ॥ सूतं गन्धं मृतं लोहं मरिचं विषमेव च । श्रीमद्गहननाथोक्ताकृमिधूलिजलप्लवः ॥ धातकी त्रिफला शुण्ठी मस्तकी सरसाञ्जनम् ।।
शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, वङ्ग भस्म और शंख त्रिकटुं मुस्तकं पाठा बालकं विल्वमेव च । * मात्रा अधिक प्रतीत होती है। मनु० । भावयेत्सर्वमेकत्र खरसैर्भूगजैस्ततः।
For Private And Personal Use Only