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(९२५३) कल्याणलवणम् (२) ( हा. सं. । स्थान ३ अ. ११ ) चित्रकपुष्करमूलसठी नां
तेषु समशास्तिला विनियोज्याः । सूरणकन्दकखण्डसमेतं
तेषु समाग्रिफला च विदध्यात् ॥ सैन्धवं तस्य चतुर्गुणकं च भावितमर्कदलेन समस्तम् । तं च घृतस्य घटे विनिधाय कानन गोमयवह्निचिपक्वम् ॥
भारत - भैषज्य रत्नाकरः
[ ककारादि
(९२५४) काकजङ्घाचं चूर्णम् ( ग. नि. । ग्रहण्य. ३ ) स्यात्काकजङ्घा लवणानि पञ्च पाठा यवक्षारकचित्रकौ च । करकं पिपलिका बृहत् साध्मानवातग्रहणीषु चूर्णम् ॥ काकजंघा, पांचों नमक (सैंधा नमक, (काला नमक), बिड नमक, सामुद्र लवण, लवण ), पाठा, जवाखार, चीतामूल, कचूर, पीपल, कटेली और बड़ी कटेली समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
संचल
उद्भिद
इसे तक के साथ पीने से गुदकील, शूल, विसूचिका, भगन्दर, कामला, पाण्डु, आनाह, चिबन्ध, गुल्म, अरुचि, मूत्ररोग, गलगण्ड और क्रिमि का नाश होता है ।
( मात्रा - १ माशा,
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क्षार मिदं लवणघृतपक्वं तक्रयुतं प्रतिपानमतोऽपि । नाशयति गुदकीलककीलान् शुलविसूचिभगन्दरकानि ॥ कामलपाण्डवानाहविबन्धान्
गुल्मम रोचकनाशनकारि । सूत्रगदगलगण्डक्रिमीणां
नाशनभद्रक सैन्धवनामा ॥
चीतामूल, पोखरमूल और कचूर १-१ भाग; तिल ३ भाग, जिमीकन्दके टुकड़े ३ भाग, बड़ी मालकंगनी ९ भाग और सेंधा नमक ३६ भाग लेकर सबको कूटकर आकके पत्तों के रसकी एक भावना दें । तदनन्तर उसे घृतसे स्निग्ध किये हुवे घड़े में भरकर उसका मुंह बन्द करके बनकण्डों ( अरने उपलों) की अभिमें फूंकें ।
स्यानीलपुष्पी हाथ शोपशान्तये ॥ काकजंघा को दूध में पीसकर पीने से या रसौत और नीले फूलकी कोयल को पीसकर पीने से शोष रोग नष्ट होता है ।
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यह चूर्ण आध्मान युक्त वातज ग्रहणीको नष्ट करता है ।
( मात्रा - ३ माशा । अनुपान तक । ) (९२५५) काकजङ्घानीलपुष्प्योः योगः ( रा. मा. । यक्ष्मा ११ ) गव्येन पिष्टा पयसा निपीता
निहन्ति शोषं खलु काकजङ्घा । सम्पेष्य पीताऽथ रसाञ्जनेन
(९२५६) काकादन्यादिक्षारः
( व. से. । श्लीपदा. ; ग. नि. । श्लीपदा. २ ) काकादनीं काकजङ्घां बृहत कण्टकारिकाम् । कदम्बपुष्पों मन्दारों लम्बां शुकनसं तथा ॥ दग्ध्वा मूत्रेण तद्भस्म स्रावयेत्क्षारकल्पवत् । तत्र दद्यात्प्रतीवापं काकोदुम्बरिकारसम् ||
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