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परिशिष्ट
लेपप्रकरणम् ]
(९४२५) कृष्णघत्तरादिलेपः ( रसे. चि. म. | अ. ९ ) कृष्णधत्तूरजं मूलं गन्धतुल्यं विचूर्णयेत् । मर्थे जम्बीरनीरेण लेपनात् सिध्यनाशनम् ॥
काले धतूरे की जड़ का चूर्ण और गंधक समान भाग लेकर दोनों को जम्बीरी नीबूके रस में घोटकर लेप करने से सिध्म नष्ट हो जाता है ।
(९४२६) कृष्ण लोहादियोगः
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( व. से. ; यो र. । नेत्ररोगा. ) कृष्णलोहरजस्ता म्रशङ्कविदुमसिन्धुजैः । समुद्रफेन कासीसत्रोतोञ्जनसृमस्तुभिः || लेपनं वा कृतं नस्यं परमुत्तममणि ||
कृष्णलोह, ताम्र, शंख, प्रवाल, सेंधा नमक, समुद्रफेन, कसीस और स्रोतोञ्जन (सफेद सुरमा); इनके समान भाग मिलित बारीक चूर्ण को मस्तु में पीस कर लेप करना तथा इस नेत्र रोग में अत्यन्त उपयोगी है ।
स्य लेना
(९४२७) तथा
( र. र. । कर्णश)
केतकी शिलवणमारनाये येत् । मूलस्थितं स्फोटं लेपनाच्च यथापहम् || की की जड़, सकी जड़ और सेवा
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नमक समान भाग लेकर कांजीके साथ पीस कर लेप करने से कर्णमूल के फोड़े की पीड़ा नष्ट हो जाती है। (९४२८) कोद्रवमसीलेषः
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( रा. मा. । शिरोरोगा . ) कोद्रलाल सिद्धा मसी प्रलेपे प्रयोजिता शिरसः ।
अपहरति रोगमचिरादारुणमपि दारुणाभिख्यम् ॥
कोदों की पुगल (नाल -- अन्नरहित पौर्दो) को जलाकर पानी के साथ पीसकर शिर पर लेप करने से ' दारुण रोग ' नष्ट हो जाता है। (९४२९) कोलादिलेपः
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( च. द. । वातव्या . ) कोल कुलत्थं सुरदारु रास्नाभाषा उमा तैलफलानि कुष्ठम् ।
चचाशतादेयवचूर्णमम्ल
इति ककारादिलेपनकरणम्
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मुष्णानि वातायिनां प्रदेहः ||
जेर, कुलथी, देवदारु, रास्ना, उड़द, अलसी, तैलबीज ( तिल, रेडी, सरसों आदि ), कूठ, बच, सोया और जौ; इनके समान भाग मिलित चूर्ण को कांजी में पीस कर गर्म करके वातव्याधिमें पीड़ा-स्थान पर लेप करना चाहिये ।