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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org श्रीधन्वन्तरये नमः अथ कषाय--प्रकरणम् कषाय- व्याख्या कषाय पांच प्रकारके होते हैं - स्वरसश्व तथा कल्कः क्वाथश्व हिमफाण्टकौ । ज्ञेयाः कषायाः पञ्चैते लघवः स्युर्यथोत्तरम् ॥ यथा अर्थात् स्वरस, कल्क, काथ, हिम, और फाण्ट यह कषाय के पांच भेद हैं । ये उत्तरोत्तर लघु होते हैं, अर्थात् स्वरस सबसे भारी, कल्क उससे हलका इसी प्रकार फाण्ट सबसे हल्का होता है । स्वरस आहतात्तत्क्षणाकृष्टाद्रव्यात् क्षुण्णात्समुद्भवेत् । वस्त्रनिष्पीडितो यथ रसः स्वरस उच्यते ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (गिलोय आदि के समान) गीली औषधियोंको कूटकर कपड़े में निचोड़नेसे जो रस निकलता है उसे स्वरस कहते हैं । यदि गीली औषधियां प्राप्त न होसकें तो : कुडवं चूर्णितं द्रव्यं क्षिप्तश्च द्विगुणे जले । अहोरात्रं स्थितं तस्मात् भवेद्वा रस उत्तमः ॥ औषधिका एक कुड़व चूर्ण लेकर उसको दूने जलमें भिगोकर २४ घंटे रक्खा रहने दे फिर (प्रातः काल मलकर) छानले । इसको भी स्वरस कहते हैं । अथवाः - आदाय शुष्कद्रव्यं वा स्वरसानामसम्भवे । जलेऽष्टगुणिते साध्यं पादशिष्टश्च गृह्यते ।। सूखी औषधियोंको आठ गुने जलमें पकाकर चौथाई बाकी रहनेपर छानलें; यह भी स्वरसका काम सकता है। यथा - चीता, इन्द्रयव और आमले आदिका स्वरस न मिलनेपर इस विधिसे सिद्ध किया हुआ कषाय काममें ला सकते हैं । स्वरसकी मात्रा - स्वरस (गीले द्रव्य से निकाला हुआ) भारी होनेके कारण २ ॥ तोलेकी मात्रा में सेबन For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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