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चूर्णप्रकरणम् ]
परिशिष्ट
४८७
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नीलोत्पल, सफेद चन्दन, मुलैठी, पीपल, मुनक्का, (९०७५) इन्द्रायणीचूर्णम् काकड़ासिंगी और शतावर १-१ भाग तथा बंस
(र. चि. म. । स्त. ९) लोचन सबसे दो गुना और मिश्री सबसे ४ गुनी । इन्द्राणीफलमादाय पक्वं लवणपश्चकम् । लेकर चूर्ण बनावें ।
तेन चापूर्यते गाढं तन्मृदा लेपयेत्कलम् ।। इसे घी और शहदके साथ चाटनेसे क्षतज | विशोष्य मृत्तिका तस्य पुटो देयो महानपि । कासका नाश होता है।
स्वांगशीतं समादाय त्रिफलां च कटुत्रिकम् । ( मात्रा-१ तोला ।)
पिप्पली चव्यचित्रं च पिप्पलीमूलमप्यथ । (९०७३) इन्द्रवामणीमूलयोगः (१) । समभागं च तत्सर्व मिश्रितं खल्वमध्यगम् ।। ( ग. नि. । वृद्वय. ३६ ; वृ. नि. र. । वृद्धय ;
टकं भक्षयेत्यातः क्षुद्रोधं कुरुते तराम् ।
श्लैष्मिकानपि चेद्रोगान्वातिकान्वा विनाशयेत् । रा. मा. । वृद्धय. १६)
अतिपुष्टिकरं चैव पाचनं परमं मतम् ॥ वातारितैलमृदितं सुरवारुणीज
___इन्द्रायणके पक्के फलके भीतर पंचलवणका ___ मूलं नरः पिबति यो ममृणं विचूर्ण्य ।
चूर्ण ( उसमें जितना आ सके उतना) भरकर उस गव्ये निधाय पयसि त्रिदिनावसाने
| पर मिट्टीका ( आध अंगुल मोटा ) लेप करदें और तस्य प्रणश्यति कुरण्डकृतो विकारः॥
उसे सुखाकर गज पुट में फूंक दें। तदनन्तर जब वह इन्द्रायणकी जड़के बारीक चूर्णको अरण्डीके
रवांगशीतल हो जाए तो निकालकर ऊपरको मिट्टी तेलमें घोटकर गोदुग्धके साथ पीनेसे ३ दिनमें
छुड़ा दें और लवण युक्त फलको पीसकर चूर्ण करें । कुरण्ड रोग नष्ट हो जाता है।
अब यह चूर्ण तथा त्रिफला, त्रिकुटा (सोंठ, (९०७४) इन्द्र वारुणीमूलयोगः (२) । मिर्च, पीपल); पीपल, चव, चीतामूल और पीपला(ग. नि. । ग्रन्थ्य. १)
मूल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें । पिष्ट्वा तन्दुलतोयेन घृतमात्रापरिप्लुतम । ___ मात्रा-५ माशे - (व्यवहा. मा. १॥-२ माशे।) मूलं तु शक्रवारुण्या गण्डमालापहं पिबेत् ॥ इसे सेवन करने से भूख खुलती है तथा __इन्द्रायणकी जड़को चावलों के पानीमें पीस कफज और वातज रोगोंका नाश होता है । यह कर घीमें मिलाकर पीनेसे गण्डमालाका नाश होता है। अत्यन्त पौष्टिक और पाचक है।
सान
इति इकारादिचूर्णप्रकरणम्
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