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(३२०)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
वात श्लेष्मनिबर्हणः श्रमहरः शूलातिशूलापहो। सुहागे से आधा और काली मिर्च सुहागे के (या वातग्रन्थिमहोदरापहरणः क्रव्यादनामा रसः ॥ सब के) बराबर मिलाकर चणकाम्ल की सात
शुद्ध पारा ५ तोला, शुद्ध गन्धक १० तोला | भावना दें। एवं तांबा और लोह भस्म २॥२॥ तोला लेकर इसे २ माशे की मात्रानुसार सेंधानमक युक्त पीसकर कज्जली करें फिर अग्नि पर पिघला कर अर- | तक के साथ भोजन के बाद सेवन करना चाहिये। ण्ड के पत्रपर ढाल कर यथा विधि पर्पटी बनावें । । इसके सेवन से मात्रा से अधिक किया हुवा फिर इसे लोहे के बरतन में पक्के जम्बीरी नींबू के | भोजन भी २ पहर में पच जाता है। ६। सेर रस में मन्दाग्नि पर पकावें।
यह कृशता, स्थूलता, विषदोष, आम, गुल्म, __ जब रस सूख जाय तो उसे पंचकोल, बिजौरा तिल्ली, संग्रहणी, वायु, कफ, थकान, शूल, वातऔर अमलवेतके ६। सेर रसकी भावना देकर उस | प्रन्थि और उदर रोग नाशक तथा स्रसन (मलको में सुहागे की खील सब के बराबर, बिडलवण पकाकर नीचे की और प्रवृत्त करने वाला) है।
अथ खकारादि कषायप्रकरणम् [१०५३] खदिरविधानम्
खदिरसारतुलामुदकद्रोणे विपाच्य षोड़शांशा(सु. सं. । चि. अ. १०) वशिष्टमवतार्यानुगुप्तं निदध्यात्, तमामलअतःखदिरविधानमुपदेक्ष्यामः । प्रशस्तदेशजात- करसमधुसपिभिःसंसृज्योपयुञ्जीत । एप एव मनुपहतं मध्यमवयसं खदिरं परितःखानयिवा सर्ववृक्षसारेषु कल्पः । खदिरसारचूर्णतुला मध्यममूलं छिच्चाऽयोमयं कुम्भं तस्मिन्नन्तरे खदिरसारकाथमात्रां वा प्रातः प्रातरुपसेवेत निदध्यायथा रसग्रहणसमर्थो भवति, ततस्तं | खदिरसारकाथसिद्धमाविकं वा सपिः । गोमयमृदावलिप्तमवकीर्यन्धनैगोमयमित्रैरा- जो उत्तम देश में उत्पन्न हुवा हो, कीड़े दीपयेत्, यथास्य दह्यमानस्य रसः स्रवत्यधस्ता- | मकौड़ों आदि की कृपा से सुरक्षित हो, न वृद्ध हो घदा जानीयात् पूर्ण भाजनमित्यथैवमुद्धृत्य | और न बालक ऐसे मध्यम वयस्क (जवान ) परिस्राव्य रसमन्यस्मिन् पात्रे निधायानुगुप्तं | खैर के वृक्षके चारों ओर की मिट्टी हटाकर उसकी निदध्यात्ततोयथायोग मात्रामामलकरसमधु | जड़के भीतर एक गढ़ा करके उसमें लोहे का घड़ा सपिभिःसंसृज्योपयुञ्जीत, जीर्णेभल्लातक वि- रख दें कि जिससे वृक्ष का रस (कटे हुवे स्थान धानवदाहारः परिहारश्च, प्रस्थे चोपयुक्ते शतं | से ) टपक टपक कर घड़े में जमा होता रहे । फिर वर्षाणामायुपोभिवृद्धिर्भवति।
उस वृक्ष के उपर (जड़ के चारों ओर) गोबर
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