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(११८)
भारत-औपश्य-रत्नाकर
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वाला, नागरमोथा, पाठा, जीरा और अतीस, एक | हन्त्यष्टादश कुष्ठानि वातरक्तं सुदुस्तरम् ॥ एक तोला लेवे प्रथम पारा गन्धककी कजली | जयेदासि सर्वाणि प्रमेहमुदराणि च ॥ बनावें और उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सोंठ, काली मिर्च, पीपल, हरड़, बहेड़ा, बकरी के दूध से पीस कर १-१ माशे की गोलियां | आमला और लोहभस्म एक एक भाग और सब से वनावे । इसे धनियां और जीरके साथ मूंग का | आधी शुद्ध शिलाजीत एकत्र मिला कर चूर्ण करे, यूष, जीरा, भांग, सनके बीज, शहद, बकरी का इस चूर्ण को गिलोय के रस की तीन भावना देकर दूध, भात का मांड, शीतल जल, केले के फूल का सुखा देवे, फिर इसमें घी मिलाकर खरल करके रस, और जलपीपल का रस, इनमें से किसी एक | एक माशा, शहद में मिलाकर खावे । यह अठारह के साथ खाने से घोर अतिसार का नाश होता | प्रकार के कोढ़, दुस्तरवातरक्त, सर्व प्रकार की है। यह एक दोषज, द्विदोषज, त्रिदोषज, उपद्रव- बवासीर, प्रमेह और उदर रोगों का नाश करता है। युक्त सव अतिसार, शूल संग्रहणी, बवासीर, अम्ल- ३२६] अमृतेश्वरोरसः। पित्त, खांसी और अग्नि को प्रज्वलित करता है।
(रसे. चि. अ. ९) [३२४] अमृतार्णवोरसः रसभस्मामृतासत्वं लौहं मधु घृतान्वितम् । (र. रा. सु. श्वा.)
अमृतेश्वरनामायं षड्गुओ राजयक्ष्मनुत् ।। पारदं गन्धकं शुद्धं मृतलोहश्च टङ्कणम् । रस सिन्दूर, सत गिलोय और लौहभस्म इन राना विडङ्ग त्रिफला देवदारू कटुत्रयम् ॥ | इन सब को इकट्ठा करके शहद और घी में मिलावे । अमृता पमकं क्षौद्रं विषतुल्यं सूचूर्णितम् ।। | इसका नाम अमृतेश्वर रस है। इसे ६ रत्ती की द्विगुंजं श्वासकासातः सेवयेदमृतार्णवम् ॥ | मात्रा में प्रयोग करने से राजयक्ष्मा का नाश
शुद्ध पारा, शुद्ध गंधक, लोहभस्म, सुहागेकी । होता है । खील, रास्ना, बायबिडंग, त्रिफला, देवदारु, त्रिकुटा, [३२७] अम्लपित्तान्तको रसः गिलोय, पत्माख, शहद और शुद्ध विष । सव को | (र. रा. सुं., अम्ल., रसे. चि. म. अ. ९) समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी कजली मृतसताभ्रोहानां तुल्यां पथ्यां विमर्दयेत । बनाकर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर । माषमात्रं लिहेत क्षौद्रेरम्लपित्तप्रशान्तये ॥ खरल करें । यह, दो रत्ती की मात्रा में सेवन करने रससिंदूर, अभ्रक की भस्म और लोह भस्म, से श्वास और खांसी को दूर करता है। समान भाग लेकर सबके बराबर हरड मिलाकर ' [३२५] अमृतार्णवलोहः (र. र. कुष्ठ) चूर्ण करे । इसे एक माशे की मात्रा में शहद के त्रिकटु त्रिफला लौहं समभागं विचूर्णितम् ।। साथ चाटने से अम्लपित्त का नाश होता है । सर्वेषामपि चूर्णानामर्द्धभागं शिलाजतु ॥ [३२८] अलोकेश्वरो रसः गुडूचीस्वरसैया भावना रविरश्मिभिः । __(र. सं. क. ४ टल्ला.) वारत्रयं ततः शुष्कं घृतेन सह मर्दयेत् ॥ शुद्धं सूतं पलं चार्कक्षीरैर्मधे पुनः पुनः । मास मात्रं च मधुना मर्दितं भक्षयेभरः। द्विपलं शुद्धगन्धस्य महाकम्बु पलाष्टकम् ।।
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