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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[ ककारादि
(९५०५) कासकेसरीरसः ____ जवाखार, सज्जीखार, सुहागा और पांचों
___(वै. र. । कासा.) नमक समान भाग लेकर सबको एकत्र मिलाकर मरिचमुस्तककुष्ठवचाविष
नीबूके रसकी सात भावना दें। इस का कांसी या सममयो परिगृह्य सुपेष्य च ।
पीतलके पत्रों पर लेप करके उन्हें शराव-सम्पुटमें विमलमारसेन वटी कृता
बन्द करके गजपुटमें फूंक दें। इसी प्रकार कई पुट कसनशूलकफामयनाशिनी ॥
देने से उनकी भस्म हो जाती है । प्रसूतिरोगं ग्रहणीं नाशयेचणकोपमा ।
(९५०८) कास्यशोधनम् काली मिर्च, नागरमोथा, कूठ, बच, और शुद्र (वृ. यो. त. । त. ४१; र. म. ) बछनाग समान भाग लेकर अदरकके रसमें घोटकर | कांस्यं तु द्विविधं प्रोक्तं पुष्पतैलिकमेदतः । चतेके समान गोलियां बना लें।
पुष्पं श्वेततमं तत्र तैलिकं कपिशप्रभम् ।। इनके सेवन से खांसी, शूल, कफरोग, प्रसूत । एतयोः प्रथम श्रेष्ठ सेव्यं रोगप्रशान्तये । रोग और ग्रहणी विकारका नाश होता है । राजरीतिस्तथा घोषं ताम्रवच्छोधयेद्भिषक् ।। (९५०६) कासीसादिचूर्णम्
ताम्रवन्मारणं चापि तयोरुक्तं भिषग्वः॥ ( यो. त. । त. ५९)
___कांसी दो प्रकारकी होती है। एक फूल कासीससैन्धवशिलाजतुहिङ्गुचूर्ण
कांसी और दूसरी तेलिया । फूल कांसी अत्यन्त मिश्रीकृतो वरुणवल्कलजः कषायः ।
| सफेद होती है और तेलिया में कुछ श्यामला होती अभ्यन्तरोत्थितमपक्वमतिप्रमाणं
है । दोनों में फूल कांसी श्रेष्ठ है और वही औषनृणामयं जयति विद्रधिमुग्रशोफम् ॥
धोंमें प्रयुक्त की जाती है। कसीस, सेंधानमक, शिलाजीत और होग। पीतल और कांसोका शोधन तथा मारण समान भाग लेकर चूर्ण बनावें।
ताम्रके समान होता है। इसे बरनेकी छालके क्वाथमें मिलाकर पीनेसे (९५०९) कांस्यशोधनमारणे अपक्व प्रश्न अन्तर्विदधि और शोथका नाश होता है
(र. र. स. । भ. ५) (मात्रा-४ रत्ती।)
अष्टभागेन तात्रेण विभागखुरकेण च । (९५०७) कांस्यमारणम् विद्रुतेन भवेत्कांस्यं तत्सौराष्ट्रभवं शुभम् ॥
(र. र. स. । अ. ५) तीक्ष्णशब्दं मृदु स्निग्धमीषच्छचामलशुभ्रकम् त्रिक्षारं पश्चलवणं सप्तधाऽम्लेन भावयेत् । निर्मल दाहे रक्तं च षोढा कांस्यं प्रशस्यते ॥ कांस्याऽऽरकूटपत्राणि तेन कल्केन लेपयेत् ॥ | तत्पीतं दहने तानं खरं रूक्षं घनासहम् । रुध्वा गजपुटे पक्वं शुद्धभस्मत्वमाप्नुयात् ॥ । मदनादागतज्योतिः सप्तधा कांस्यमुत्सृजेत् ॥
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