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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org अकारादि- धृत पीपल, पीपलामूल, चीता, गजपीपल, हींग, चव, अजमोद, पांचोनमक, साजीक्षार, यवक्षार और हाऊबेर । प्रत्येक २ ॥ - २॥ तोला, दही, कांजी, शुक्त और अद्रकका रस प्रत्येक १-१ सेर । सबको १ सेर घृत में यथाविधि पकावे । यह अग्निघृत मन्दाग्निवालों के लिए श्रेष्ट है। अर्श, गुल्म, उदररोग, ग्रहणी, सूजन, भगंदर, और बस्ति तथा कुक्षि के समस्त रोगों का नाश इस प्रकार होता है जिस प्रकार सूर्योदयसे अन्धकार का । [ १५७ ] अभिघृतम् (२) (ग.नि.) भल्लातकारपलशतं जलद्रोणे विपाचयेत् । चतुर्भागावशेषं तु कषायमवतारयेत् ॥ यूषणं पिप्पलीमूलं चित्रको हस्तिपिप्पली । हिङ्गु चव्याजमोदं च पञ्श्चैव लवणानि च ॥ द्वौ क्षारौ बुषा चात्र दद्यादर्द्ध पलोन्मिताम् । मस्त्वम्लरसचुक्राणां प्रस्थं प्रस्थं प्रदापयेत् ॥ आर्द्रकस्य रसमस्थं घृतप्रस्थं विपाचयेत् । एतदनिघृतं नाम मन्दाग्निनां प्रशस्यते ॥ अशसि वातरोगं च प्लीहोदरजलोदरम् । ग्रन्थ्यर्बुदापची शोफकुष्ठ मेदोऽनिलांस्तथा ॥ ये च कुक्षिगता शेगा ये च वस्तिसमाश्रिताः । तान्सर्वान्नाशयत्येतत्सूर्यस्तम इवोदितः || ६ । सेर भिलावे लेकर ३२ सेर जलमें पकावे चौथा भाग रहने पर उतारले इस कषाय में त्रिकुटा, पीपलामूल, चीता, गज पीपल, हींग, चव, अजमोद, पांचों लवण, सज्जीखार, यवक्षार, हाऊबेर प्रत्येक २॥ २॥ तोले का कल्क, मस्तु, कांजी, चुक और अद्रकका रस प्रत्येक १ – १ सेर मिलावे और इसमें १ सेर धृत मिलाकर पाक सिद्ध करे । यह अग्निघृत मन्दाग्निवालों के लिए अत्यन्त हितकारी है। इसके सेवन से अर्श, वात व्याधि, प्लीहोदर, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७) जलोदर, ग्रन्थि, अर्बुद, अपची, शोथ, कुष्ठ, मेद और बस्ति तथा कुक्षिगत रोग इस प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे अन्धकार | [१५८] अभिघृतम् (३) (ग.नि.) चतुष्पलं चव्यचित्रकपाठा, तेजस्विनी पिप्पलिमूलमेदाः । दद्याच सुस्ता त्रिफलं विशुद्धं, मुष्टिं समग्रामथ पल्लवानाम् ॥ आस्फोटजातीमथ सप्तपर्ण, पटोलशा खोटकनक्तमालम् । निम्बं प्रदद्यादथ कल्कम स्मि अधिश्राम कटाहे || सुक्कथितं द्रोणजालेन पूर्ण, पादावशिष्टं पुनरुद्धरेत् । पलार्द्ध तुल्यातिविषा सभद्रा, कल्कीकृतानि द्विपलानि दद्यात् ॥ सयावशूकं विडसैन्धवं च, पलानि चत्वारि च पिप्पलीनाम् । कल्कैः कषायेण च सिद्धमेत न्मृद्वग्निसिद्धं ह्यवतारयेत्तत् ॥ पिबे जीर्णे तु घृतस्य कर्षे, विष्टम्भदोषे द्विगुणं पिबेन्च | अनेन सर्वे ग्रहणी विकाराः, शाम्यन्ति गुल्माश्च बहुप्रकाराः ॥ विंशत्क्रिमीणामथ जातयश्च, शाम्यन्ति सर्वा विविध प्रयोगात् । पांवामयलीहगरोद्भवाथ, रोगा भविष्याश्च शमं ब्रजेयुः ॥ सेवेत मद्यं पिशितानि चैव, विवर्जकः स्यादपतर्पणस्य । नाम्ना तदप्यग्नि घृतं प्रसिद्धं, as च सन्दीपयति प्रसह्य || For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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