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(२५६)
भारत-भैषज्य-रलाकर
पुनर्नवा शिरीषश्च कथितास्तेषु साधितम् ।। सशर्करं कुंकुममाज्यभृष्टं घृतं शिलाहमधुकै/जैरिन्दीवरस्य च ।
नस्यं विधेयं पवनासृगुत्थे। अपुर्वर्वारुकादीनां बीजैश्चावापितं शुभम् ।। भ्रूशङ्खकर्णाक्षिरोऽर्द्धशूले मिनत्ति पित्तसम्भूतामश्मरी क्षिप्रमेव च ॥ दिनाभिवृद्धिप्रभवे चरोगे। (बीजं बीजसारः सरोजबीजं वा ।।)
केशर और शर्करा (खांड)को धीमें मिलाकर ___ कुश, कांस, सरकंडा (शर), सरपता, उत्कट | गरम करके नस्य लेनेसे वातज और रक्तज भू, (सफेद चौंटली), ईखकी जड़, पत्थर चटा, दाब, शंख, कान, आंख और आधे शिरका दर्द तथा विदारीकन्द, बाराहीकन्द, धानकी जड़, गोखरू, । सूर्यावर्त (सूर्यके बढ़नेके साथ बढ़ने वाला शिरशूट) भिलावे, पाढल, पाठा, पतङ्ग, कटसरैया, पुनर्नवा | नष्ट होता है। (यहां केसर और खांड ४-४ माषा और सिरस।
तथा घी ४ तोला लेना चाहिये।) इनके क्वाथ के साथ घृत पकाकर उसमें [८४०] कुलत्थाधं घृतम् (१) (भै. र. अश्म.) शिलाजीत, मुल्हैठी, कमलगट्टे और खीरे ककड़ी
कुलत्थसिन्धूत्थविडंगसारं आदिके बीजोंका चूर्ण प्रक्षेप रूपसे मिलाकर सेवन सशर्करं शीतलियावशूकम्। करनेसे पित्तज अश्मरीका शीघ्र नाश होता है। बीजानि कूष्माण्डगोक्षुराभ्यां [८३७] कुशादिघृततैले
घृतं पचेत्तद्वरुणस्य तोये ॥ (वृ. यो. त. ८० त. धन्वं; वृ. मा;ग.गिःदाह)
दुःसाध्यसर्वाश्मरिमूत्रकृच्छ् कुशादिशालिपर्णीभिर्जीवकर्षभकाधितम् ।
मूत्राभिघातं च समूत्रबद्धम् । तैलं घृतं वा दाहघ्नं वातपित्तविनाशनम् ॥
एतानि सर्वाणि निहन्ति शीघ्रं
. प्ररूढवृक्षानिव वज्रपातः॥ तृणपञ्चमूल (कुश, कांस सरकंडा, दाभ,
शीतलियावशूकमिति यवक्षारः ईख) शालपर्णी, जीवक और ऋषभक से सिद्ध
___ स च स्फटिकसैन्धवसङ्काशः । किया हुआ तैल या घृत दाह और वातपित्तका
अन्ये तुशीतली खनानाश करता है।
माख्या च इति भानुः ।। [८३८] कुंकुमधृतम् (वृ. नि. र. । शि. रो.)
कुलथी, सेंधानमक, बायबिडंग, शर्करा(खांड) कुंकुमं घृतसंयुक्तं नस्यं चा शिरोव्यथाम् ।। यवक्षार, शीतल चीनी, पेठेके बीज और गोखरू । नाशयेत्तत्क्षणादेव हितमेतच्छिरोरुजि॥ इनके कल्क और बरनेके क्वाथके साथ घृत पकावें।
केसरको धीमें मिलाकर नस्य लेनेसे आधा- | इसके सेवनसे सब प्रकारकी दुस्साध्य पथरी, शीशी और अन्य प्रकारकी शिर पीड़ाएं तत्काल | मूत्रकृच्छ्र और मूत्राघातका नाश होता है। नष्ट होती हैं।
[८४१] कुलत्थाचं घृतम् (२) [८३९] कुंकुमाद्यं घृतम् (च. द.। शि. रो.) (बं. से. । ज्व. चि.) १ जीवकाचैश्च-(ग. नि.)
कुलत्यकोलत्रिफलादशमूलयवान् पवेद ।
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