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(२४२)
भारत-भैषज्य-रत्नाकर
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या बकरीके दूधके साथ सेवन करने से सब प्रकारके । गलरोगोपशमनो विषमज्वरनाशनः । प्रबल अतिसार, काले सफेद, पीले और लाल आदि कुरण्टकादिनामाऽयं लेहो रोगाहितः सदा ॥ रंग बिरंगे दस्त, अनेक प्रकारके ग्रहणी रोग, रक्त- कुरण्ट (पिया वांसा) को मूल सहित लेकर स्राव, शूल, खूनी बवासीर और कष्टसाध्य रक्तप्रदर ! कुल्हाडेसे टुकड़े करके कूटकर १६ सेर पानीमें का नाश होता है।
पकावें । जब आठवां भाग शेष रह जाय तो छान[८००] कुनटयादिलेहः
कर फिर पकावें जब तीन भाग पानी जल जाय ___ (बं. से । कासे, र. का. धे. श्वासा) तो उसमें इलायची, लौंग, त्रिफला, चव, तेजपात, कुनटीसैन्धवव्योषविडङ्गामलहिङ्गुभिः॥
केसर (या नागकेसर) दोनों प्रकारकी (श्वेत और
नीले पुष्पकी) भारंगी, पीपलामूल, पाठा, पीपल, लेहस्साज्यमघुःकासश्वास हिक्वानिवारणः ।।
चीता, कूठ, बेर, सुरमा, अजमोद, हडजोड़ी,बायशुद्ध मनसिल, सेंधानमक, त्रिकुटा, बाय
बिडंग, दोनों जीरे, इन्द्रजौ, नागरमोथा,अजवायन, बिड़ङ्ग, बांसा (या आमला) ओर हींगके चूर्णको धी और शहद में मिलाकर चाटने से खांसी, स्वास
सेंधा नमक, कुटकी, अतीस, मूर्वा, करमवा, अरल्लू
और शुद्ध मीठा तेलिया । इन सबका महीन चूर्ण और हिचकी का नाश होता है।
मिलाकर यथाविधि अवलेह पाक सिद्ध करें। [८०१] कुरण्टकादिनामा लेहः (यो. र. ज्च)
इसे आमलेके बराबर मात्रामें गरम पानीके कुरण्टकं समूलं च कुठारच्छेदक्षुण्णकम् ।।
साथ २० दिन तक सेवन करनेसे पुराना बुखार, पानीयमष्टप्रस्थं वा क्वाथमष्टावशेषकम् ॥ । द्वन्द्वज ज्वर, अग्निमांद्य, अरुचि, त्वचा-गत, अस्थि शेषक्वार्थ भाण्डमध्ये पुनः काथ्याग्निना पचेत् । गत, रक्तगत और मांसगत ज्वर, सन्धि ज्वर,प्रबल काथे त्रिभागपचिते चूर्णद्रपाणि निक्षिपेत् ॥ रात्रि ज्वर, सन्निपात ज्वर, श्वास, खांसी, गलरोग एला लवङ्गं त्रिफला चव्यं पत्रककेसरम् ।। और विषमज्वरका नाश होता है। द्विर्भार्गी ग्रन्थिकं पाठा मागधी चित्रकुष्ठ कम् ॥ [८०२] कुलत्थगुडः कोलाञ्जनं चाजमोदा वज्रवल्ली विडङ्गकम् ।। (र. र. हिक्का. ब. से; कासा) जीरद्वयं चेन्द्रयवं मुस्तादीप्यकसैन्धवम् ॥ कुलत्थो दशमूलश्च तथैव द्विजयष्टिका । कदुकाऽतिविषा मूर्वा करञ्जस्त्वरलूग्रकम् ।। शतं शतश्च संगृह्य फलद्रोणे विपाचयेत् ।। एतद्रव्यं मूक्ष्मचूर्णं पूर्वकाथेन संयुतम् ।। पादावशेष तस्मिश्च गुडस्या तुलां क्षिपेत् । . लेहपाकं च विधिवद्धात्रीफलसमानकम् । शीतीभृते च पक्के च मधुनोऽष्टौ पलानि च ।। उष्णोदकानुपानेन सेवयेद्दिनविंशतिम् ।। षट्पलश्च तुगाक्षीर्याःपिप्पल्याश्च पलद्वयम् । द्वंद्रज्वरं पुराणं च त्वग्निमान्द्यमरोचकम् । । त्रिसुगन्धिसुगंधं तत्खादेदग्निवलं प्रति ।। स्वगतास्थितगतौ रक्तगतं मांसगतं ज्वरम ।। श्वासं कासं ज्वरं हिक्कां नाशयेत्तमकन्तथा।। संधिज्वरं च ह्यत्युग्रं रात्रिज्वरमथो हरेत । । कुलथी, दशमूल और भारंगी ६।-६। सेर त्रिदोषजं ज्वरं हन्ति श्वासकासज्वरापहः ॥ १ ब. से. मैं त्रिसुगन्धका अभाव है।
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