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अकारादि-लेप
(७५)
पहिले जैसा होजाता है।
लेपः सनवनीता वा श्वेताश्वखुरजा मसीः॥ [२०५] अयोरजादि लेपः (३) ___अर्जुनकी छाल, मजीठ और बांस को पीसकर (वृ. नि. र.)
शहद में मिलाकर लगाने से अथवा सफ़ेद घोड़ेके सायोरजः कृष्णतिलांजनानि
खुरकी राख नवनीत में मिलाकर लगाने से झाई सावरगुजान्यामलकानि दग्ध्वा । और व्यंगका नाश होता है। पिष्ट्वा हि भृगस्य सकृद्रसेन
[२०९] अर्शोहर लेपः हन्यात् किलासं परिघृष्ट लेपात् ॥
(च. सं., चि. अ. १४ अर्हो) लोहेका बुरादा, काले तिल, सुरमा, बावची | कुञ्जरस्य पुरीपञ्च घृतं सर्जरसो रसः । और आमला, इनको जला कर भांगरे के रस में | हरिद्राचूर्णसंयुक्तं सुधाक्षीरं प्रलेपनम् ॥ पीस कर लेप करने से किलास कुष्टका नाश होता है। शिरीषबीज कुष्ठश्च पिप्पल्यः सैन्धवं गुडः । ___ मोट-लेप करने से पहिले कुष्ट को खुजा | अर्क श्री सधानी त्रिफला च प्रलेपनम ॥ लेना चाहिये।
पिप्पल्याचित्रकार श्यामाः किण्वं मदनतण्डुला: [२०६] अर्कादिलेपः (१) (वृ. नि. र.) दशशतकरदुग्धं पुष्करत्वक्समेतम् ।
प्रलेपः कुक्कुटशकृद् हरिद्रागुडसंयुतः ॥
___हाथीकी लीद, धी, राल, पारा और हल्दी दहनगुडनिकुम्भाकुष्ठकासीसयुक्तम् ॥
इनको थोहर के दूधमें पीसकर लेप करने से अथवा अपनयति वितीण लेपनं सप्तरात्रात् ।
सिरस के बीज, कूठ, पीपल, सेंधानमक, गुड़ और श्वयथुहरणयुक्तं कर्णकग्रन्थिमेतत् ॥
| त्रिफले को थोहर और आक के दूध में पीस कर पोखरमूल, दालचीनी, चीता, गुड़, दन्तीमूल
लेप करने से अथवा पीपल, चीता, काली निसोत, (अथवा कायफल), कूठ, कसीस, और सांठी की जड़ को आकके दूधमें पीसकर लेप करने से कर्णमूल
मैनफलके बीज, हल्दी, गुड़, और मुगेकी बीट इन शोथ का नाश होता है।
सबको किण्व (सुरा बीज) में पीसकर लेप करने से [२०७] अर्कादि लेपः (२)
अर्शका नाश होता है। (यो. र; ग. नि. अशों) [२१०] अवल्गुजादि लेपः आर्के पयः सुधाकाण्डं कण्टकालाबुपल्लवाः।
(च. सं., यो. र.) करञ्जो बस्वमूत्रेण लेपनं श्रेष्ठमर्शसां ॥ | अवल्गुजं कासमदं चक्रमदं निशायुतम् । ___ आक का दूध, और थोहर का डंठल, गोखरू, माणिमन्थं च तुल्यांशं मुस्तकाजिकपेषितम् ॥ कड़वी तोरीके पत्ते, करंजवे के पत्ते,. इन सबको कण्डूं कृच्छां जयत्युग्रां सिद्ध एष प्रयोगराट् ।। बकरे के मूत्रमें पीसकर लेप करने से मस्सोंका बाबची, कसौंदी, पंचाड़, हल्दी, सेंधानमक नाश होता है।
और नागरमोथा । इन सब को समान भाग लेकर २०८] अर्जुनत्वगादि लेपः (वृ. नि. र.) | कांजी में पीसकर लेप करनेमे अत्युग्र कंडू (खुजली) व्यङ्गेषु चार्जुनत्वक् च मञ्जिष्ठा वृष माक्षिकैः। ' का नाश होता है । यह सिद्ध प्रयोग है ।
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