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उकारादि-रस
(१८३)
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सिंदुवाररसेनापि लशुनस्य रसेन च। । नीरेण बब्बूलनवप्रवालान्निषेव्य अपामार्गरसेनापि सप्तरात्रं विमर्दयेत् ॥
तैःशकॅरयासमन्वितैः ॥ तत्पकं वालुकायंत्रे गुञ्जामात्रं प्रयोजयेत् । सर्वप्रमेहान्विनिहंति दत्तो सनागवल्लीमरिच ततः शीताम्बु पाययेत् ।। दिनत्रय विंशतिवत्सरस्य । उमाप्रसादनो नाम रसः शीतज्वरापहः। अन्न ससपिःससितं प्रयोज्य चातुर्थिकं त्रिरात्रं वा नाशयेत्किमुताऽपरान् ।। दिनानि सप्त त्रिगुणानि चात्र ।।
अभ्रक भस्म, शुद्ध पारद, शुद्ध गंधक, शुद्ध । वरामधुभ्यां सहितस्य यस्य मीठा तेलिया, त्रिकुटा, पांचों लवण, दोनों जीरे। पंचाधिका वत्सरविंशतिःस्यात् । सब चीज़े समान भाग लेकर संभाल, ल्हसन और हैयंगवीनेन गवां च पथ्यं । अपामार्ग के रस में ७-७ दिन घोट कर बालुका त्रिसप्तसंख्यानि दिनानी कार्यम् । यन्त्र में पकावें।
प्रस्विन्नगोधूमरसेन हंति इसे १ रत्ती की मात्रानुसार काली मिर्च के सत्रिंशदब्दस्य दिनत्रयेण ॥ चूर्ण और पान के साथ खाकर ऊपर से शीतल अन्नं ससपिः सगुडं हि देयं जल पीने से शीतज्वर, चौथिया और तिजारी का | मध्विक्षुखंडैत्रिदिन विधातुम् । नाश होता है।
अंगानि सम्यग्विनिदाघ[५३८] उमाशंभुरसः (र. र. स. १७ अ.) संघगतानि खानि स्फुटनं ददीतं ॥ रसाभ्रको तुत्थसमानभागी चिंचागुडाभ्यां युतमन्नमस्मिन्द्रा ___ जंबीरनीरैत्रिदिनं विमी।
क्षादिनीरेण विमिश्रितः सन् । कुर्वीत मूषाकुहरे निवेश्य
दिनत्रयं लंघनजं विशोषं ___ वह्नौ ततस्तस्य पुटानि सप्त ॥
विनाशयेद्गोस्तनिकासिताभ्याम् ।। बीजाह्वमुस्ताक्षयुगैश्वतस्रः
पथ्यं देयमुमाशंभी स्युर्भावनाद्वे ककुभात्रिवारम्।
वासुदेवेन निर्मिते । यष्टीसिताकेतकजीररंभा
पातुं जगति कृपया ___ खजूरिकाजातिदलैः प्रतिस्वम् ।। मेहध्वांतविवस्वति ॥ एवं हि सिद्धस्य रसस्य वल्लो
शुद्ध पारा और अभ्रक भस्म १-१ भाग, मधुप्रयुक्तःसहसा शिशूनाम् । नीलाथोथा २ भाग । सब को जंबीरी नीबू के रस संतापशोपौ बलहीनतां च में ३ दिन तक घोट कर मूषा में बन्द करके पुट
तृषां च वाससलिल प्रमेहान् ।। | दें। इसी प्रकार जंबीरी के रस की सात पुट दें। निवर्तयेद्वासरसप्तकेन
फिर बिजौरा, नागर मोथा, बहेड़ा और ऋद्धि की दुग्धौदनं स्पादिह भोजनाय। ४-४ भावना, अर्जुन के क्वाथ की २ और मुल्हठी,
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