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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (९०) भारत-भैषज्य-रलाकर ले। इसे सुखाकर ३ कपरमिट्टी की हुई आतशी ! मिलाकर भांगरे के रस की भावना देकर कपरशीशी में भर दे फिर उसका मुंह बन्द करके १॥ | मिट्टी की हुई आतशी शोशी में भर दे और विधिदिन तक बालुका यन्त्र में पकावे और क्रमशः । वत् १ दिन बालुका यन्त्रमें मन्दाग्नि पर पकावे अग्नि बढ़ाता रहे । फिर उतार कर स्वांग शीतल ! और स्वांग शीतल होने पर निकाल कर खरल होने पर उसके अन्दर से औषध को निकाल और करके रक्खे । इसे यथोचित अनुपान के साथ घोटकर उसमें समस्त औषध का छठा भाग शुद्ध चनेके बराबर मात्रा में सेवन करने से चौथिया मीठा तेलिया और आधा भाग काली मिर्च का | ज्वर, और सन्निपात तथा अन्य अनेक रोगों का चूर्ण मिलाकर मदन करे । इसे १ रत्ती की मात्रा नाश होता है। में पान के रसके साथ सेवन करने से वातव्याधि, । [२५६] अग्निकुमारो रसः (२४) क्षय, श्वास, खांसी, कफज पाण्डु, मन्दाग्नि और सन्निपात का नाश होता है। पथ्य-शालीचावलों | (र. चं. ग्रहणी) का भात आदि । यदि इसके सेवन से दाह हो तो शुद्धसूतं समं गन्धं त्रिकटुं पटुपञ्चकम् । शिर पर जल अवसेचन आदि शीतल क्रियाएं दशकं तुल्यतुल्यं च विजया सर्वसम्मिता ॥ करनी चाहिए। भावयेचित्रभृङ्गोत्थैस्त्रिधा च विजयाद्रवैः । [२५५] अग्निकुमारोरसः (२३) दीप्ताग्निना तु यामैकं चालुका यन्त्रगे पचेत् ॥ संचूर्ण्य चाकद्रावैर्भावयित्वा च भक्षयेत् । रसं विषं चाभ्रगन्धौ तालकं हिङ्गुलं विषम् । मधुना शाणमानं तु रसो ह्यग्निकुमारकः ॥ शुल्वमस्मसमं तुल्यं मर्दितं भृङ्गवारिणा ॥ दीप्ताग्निकारकः सामग्रहणीदोषनाशनः । काच कूप्यां विनिःक्षिप्य विलेप्या वस्त्रमृत्तिका। शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक, त्रिकुटा, पांचों नमक । बालुकायन्त्रके पाच्य दिनैकं मन्दवह्निना ॥ । ये दशों चीजें वराबर और भांग सबके बराबर स्वाङ्गशीतं समुद्धृत्य दातव्यं चणमात्रकम् । लेकर प्रथम पारे गन्धक की कजली करके और अनुपानविशेषेण चातुर्थिकज्वरं हरेत् ॥ फिर उसमें अन्य औषधियों का चूर्ण मिलाकर सब सन्निपातं निहन्त्याशु सर्वरोगहरं परम् । | को चीतामूलके काथ भांगरे के रस और भांग के महानग्निकुमारोऽयं सर्वव्याधिनिवारणः ॥ रसकी ३- ३ भावना देकर (सुखाकर) आतशीशी शुद्ध पारा, शुद्ध बच्छनाग, अभ्रकभस्म, शुद्ध में भर कर १ पहर तक बालुकायन्त्र में तीव्राग्नि गन्धक, शुद्ध हरताल, शुद्ध सिंगरफ, शुद्ध विष | पर पकावे । फिर स्वांग शीतल होने पर रसको (इस प्रयोग में विष शब्द दो वार आता है अतः । निकालकर चूर्ण करके अद्रक के रसकी भावना दे। या तो वह २ भाग लेना चाहिए या एक स्थान | इसे ४ माशे की मात्रा में शहद के साथ सेवन पर विष का अर्थ संखिया कर सकते हैं) और ताम्र | करने से आम सहित संग्रहणी का नाश होता है भस्म समान भाग लेकर प्रथम पारे गन्धककी | और अग्नि प्रदीप्त होती है । (व्यवहारिक मात्राकजली बनावें और फिर उसमें अन्य औषधियां ' आधे से १ माशा पर्यन्त) For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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