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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१८) भारत-भैषज्य-रत्नाकर। - हींग, कपूर, कुस्तुम्बरु, तगर, सुगन्धवाला, लौङ्ग, पेठेकी जड़के चूर्णको किञ्चितोष्ण कुछगरम जावित्री, मजीठ, पोखरमूल, विधारा, कमलगट्टा, पानीके साथ पीनेसे दारुण श्वास और खांसीका बंसलोचन, कपूरकचरी, तालीसपत्र, चीता, जटा- | नाश होता है। मांसी, जायफल, खस, बला [खबैंटी] नागबला, [७२०] कुष्मांडक्षारम् (भा. प्र. । शूले ) सोनामक्खी भस्म, कूठ, पीपलामूल और रूपाम- कुष्मांडं तनु कृत्वा तु क्षिप्त्वा धर्मे विशोषयेत् । क्खी भस्म । सब चीजें समान भाग, मोचरस स्थाल्यां निःक्षिप्य तत्सर्व पिधानेन पिधाय च ॥ सबके समान । मिश्री मोचरससे २ गुनी । यथा | | चुल्लयां निवेश्य वनिश्च ज्वालयेत्कुशलो जनः । विधि चूर्ण बनावें। यथातन भवेद्भस्म किन्त्वङ्गारो दृढो भवेत् ।। इसे ११ तोलाकी मात्रानुसार प्रातः और तदानिर्वापयेच्छीत सर्वथा चूर्णितन्तु तत् । सायंकाल और विशेषतः भोजनके अन्तमें सेवन | माषद्वयमित तावच्छुण्ठीचूर्णेन मिश्रितम् ॥ करनेसे अजीर्ण, अग्निमांद्य, ८० प्रकारके बातज जलेन भक्षयेन्नित्यं महाशूलाकुलो नरः । रोग, २४ प्रकारके पित्तरोग, २० प्रकारके कफज- असाध्यमपियच्छूलं तदप्येतेन शाम्यति ॥ रोग, उबकाई, वमन, अरुचि, ५ प्रकारके ग्रह- पेटेके बारीक बारीक टुकड़े करके धूपमें णीविकार, अतिसार, ११ प्रकारका क्षय, श्वास, सुखालें और उन्हें एक हाण्डीमें भरकर उसके ५ प्रकारकी खांसी, उदररोग, मूत्रकृच्छ्र, गलग्रह, ऊपर ढकना ढकदें। अब इसको चूल्हेपर चढ़ाकर वंध्यत्व, सन्निपात, विस्फोटक, भगन्दर, नेत्र रोग, | उसके नीचे अग्नि जलावें । जब पेठेके टुकड़े जलशिरोरोग, कर्णरोग, हनुग्रह, हृद्रोग, कंठरोग, जानु | कर अंगारके समान हो जाय [ किन्तु बिल्कुल और जंधागत व्याधियां आदि अनेक रोग नष्ट | भस्म न हो जाय बल्कि कठिन रहें] तब उन्हें होते हैं । यह अत्यन्त वाजीकरण है। ठण्डा करके चूर्ण करें। [७१८] कुष्माण्डवीजयोगः इसमेंसे २ माशे चूर्ण सोंठके चूर्णमें मिलाकर (वृ. नि. र । वा. व्या.) | जलके साथ सेवन करनेसे भयंकर और असाध्य कुष्माण्डस्य तु बीजानि बीजानि पुसस्य च। शूल भी नष्ट हो जाता है। पस्तौ संधारयेत्तेन प्रशाम्येन्मूत्रनिग्रहः॥ [७२१] कृमिघ्नंचूर्णम् (रसा. सा.) पेठे और खीरेके बीजोंको पीसकर बस्तीके पालाशबीजं कुटजत्वचा च ऊपर लेप करनेसे मूत्रावरोध [मूत्र बन्द होना ! समे विडङ्ग भयोः समानम् । नष्ट होता है। चूर्ण कृमिघ्नं पलपादमात्रं [७१९] कुष्मांडशिफाचूर्णम् कदुष्णतोयेन निषेवणीयम् ॥ (वृ. नि. र. वा. का; ब. से., यो. र. जन्तुघ्नं केवलं यद्वा प्रातः सेवेत बुद्धिमान् । श्वा; . यो. त. त. ८०) तप्तकोष्णेन तोयेन जन्तुरोगापनुत्तये ॥ कुष्मांडकशिफाचूर्ण पीतं कोणेन वारिणा। ढाकके बीज १ छटांक, कुड़ाकी छाल १ श्रीघ्रं शमयति श्वास कासं चापि सुदारुणम् ।। छटांक, बायबिडंग आधपाव, इन तीनों को कूट For Private And Personal Use Only
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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