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ककारादि-कषाय
(२०५)
नाश होता है।
__काकोली, बड़ी कटेली, नागरमोथा, कूठ, । [६३६] काश्चनारादिक्वाथः (१) देवदारु (अथवा दारु हल्दी) बांसा, गिलोय और (यो. र., र. र; भै. र. । मसू.) सोंठके क्वाथमें मिश्री डालकर पीनेसे वातज्वरका ! काश्चनारत्वचाक्वाथस्ताप्यचूर्णावचूर्णितः।
निर्गत्यान्तः प्रविष्टां तु मम्ररी बाह्यतो नयेत् ।। [६३४] काकोल्यादि कषायः (३) कांचनार (कचनार) की छालके क्वाथमें
(बृ. नि. र. . वा. र.) | सोनामक्खी का चूर्ण (भस्म) ालकर पिलानेसे *काकोल्याख्यामृताक्वार्थ छुपी हुई मसुरिका (वेचक) बाहर निकल आती है।
पिबेत्कोष्णं यथावलम्। [६३७] काञ्चनारक्वाथः (२) पथ्यभोजी त्रिसप्ताहा
(वृ. नि. र., यो. र. । सुखः । न्मुच्यते वातशोणितात् ॥ कांचनारत्वचा क्वाथः प्रातरास्ये धृत सुखः। काकोली और गिलोयके किञ्चितोष्ण क्वाथको कुर्यात्सखदिरो जिव्हादरणोन्मुलन मुहः ।। बलानुसार २१ दिन पीने और पथ्य पालन कर- यदि जिह्वा फट गयी हो तो कचनार और नेसे वातरक्तका नाश होता है।
खैरकी छालका क्वाथ प्रातःकाल मुखमें धारण [६३५] काकोल्यादि गणः करनेसे आराम होता है।
(प.सं. सू.३८ अ.) | [६३८] काञ्चनारादिक्वाथ: (३) काकोलीक्षीरकाकोलीजीवकर्षभकमुद्गपर्णीमा- (शा. ध. म. खं, अ. २; यो. र; गण्डमाला.) पपर्णीमेदामहामेदाच्छिन्नरुहाकवटभृङ्गीतुगा- कांचनारत्वचः काथः शुंठीचूर्णेन नाशयेत् । क्षीरीपद्मकप्रपौण्डरीकद्धिं वृद्धिमृद्वीकाजीवन्त्यो गण्डमालां तथा क्वाथः क्षौद्रेण वरुणत्वचः।। मधुकञ्च।
___कचनारकी छालके क्वाथमें सोंठका चूर्ण काकोल्यादिरयं पित्तशोणितानिलनाशनः। मिलाकर अथवा बरनेकी छालके क्वाथमें शहद जीवनो बृहणो वृष्य स्तन्य श्लेष्मकरस्तथा ॥ डालकर पीनेसे गण्डमालाका नाश होता है। ___ काकोली, क्षीरकाकोली, जीवक, ऋषभक, ६३९] काश्मर्यादिः (१) (यो. र. ज्वरे) मुद्गपर्णी, माषपर्णी, मेदा, महामेदा, गिलोय, काक- काश्मरीसारिवाद्राक्षात्रायमाणामृतोद्भवः । डासींगी, बंसलोचन, पद्याक, पुण्डरीक, ऋद्धि, वृद्धि, कषायः सगुडः पीतो वातज्वरविनाशनः ।। मुनक्का, जीवन्ती और मुल्हैठी । इन औषधियोंके खम्भारी, सारिया, मुनक्का, त्रायमाणा (बनयोगका नाम “काकोल्यादि गण" है।
फशा) और गिलोयके क्वाथमें गुड़ मिलाकर पीनेसे काकोल्यादि गण रक्तपित्त और वायुनाशक वातज्वर नष्ट होता है। तथा जीवनीय, वृहणीय, वृष्य, स्तन्यजनक एवं | [६४०] काइमर्यादिः (२) (यो. र., तृ. पि.) कफकारक है।
काश्मर्यशर्करायुक्तं चन्दनोशीरपमकम् । *कोकिलाक्षेति पाठान्तरम् । द्राक्षामधुकसंयुक्तं पित्ततर्षे जलं पिबेत् ॥
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