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खकासाद-तल
(३३३)
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गलगण्ड, विषविकार, विस्फोट, विसर्प, खुजली, दुष्ट । खजूर, मुनक्का, मुल्हैठी और फालसे के व्रण (घाय) और अन्य कितने ही रोगों का नाश | कल्क तथा पीपल के प्रक्षेप से सिद्ध किया हुवा घी होता है।
| वैस्वर्य (गला बैठ जाना) खांसी, श्वास और ज्वर [१०९२] खदिराचं घृतम् ।
का नाश करता है। (वं. से. । बा. रो.) | [१०९४] खजूरादियोगः खदिरार्जुनतालीस कुष्ठस्यन्दनजे रसे। | (ग. नि. । शिरो. रो.) सक्षीरं साधितं सर्पिः श्वयथुश्च नियच्छति ॥ खरयष्टीमधुकाकजङ्घा
खर, अर्जुन, तालीसपत्र, कूठ और तेंद के द्राक्षान्वितं खण्डमुशीरकं च। कषाय तथा दूध के साथ सिद्ध किया हुवा घृत मूजन | पिबेत्सुपकं नवनीतमेभिका नाश करता है।
मध्वन्वितं प्रान्तशिरोव्यथावान् ॥ [१०९३] खजूरादिघृतम्
खजूर, मुन्हैठी, काकजंघा, मुनक्का, खांड (ग. नि. । राजय.) | और खस से नवनीत (नवनी धी) को पकाकर घृतं खजूरमृद्वीकामधूकैः सपरूषकैः। शहद डालकर पीने से कनपटियों (शिर के प्रान्त सपिप्पलीकं वैस्वर्यकासश्वासज्वरापहम् ॥ ' भागों) का दर्द नष्ट होता है ।
अथ खकारादि तैलप्रकरणम् [१०९५] खुड्डाकपातैलम् । पद्माक, खस, मुल्हैठी और हल्दीके क्वाथ तथा
__(च. सं. चि. अ. २९) राल, मजीठ, काकोली, क्षीरकाकोली और चन्दन के पनकोशीरयष्टयाहरजनीक्वाथसाधितम्।
कल्क से सिद्ध किया हुवा तेल रुग्दाह-सन्निपात स्थापिष्टैःसर्जमजिष्ठावीराकाकोलिचन्दनैः।।
| को शान्त करता है। खुड्डाकपपकमिदं तैल्लं रुग्दाहनाशनम् ॥ ।
अथ खकारादि आसवारिष्टप्रकरणम् [१०९६] खदिरारिष्टः | धातक्या विंशतिपलं माक्षिकस्य शतद्वयम् । (ग. नि. । आसव.)
| शर्करायास्तुलामेका चूर्णानीमानि दापयेत् ॥ खदिरस्य तुलाधं तु तत्तुल्यं देवदापि ।
ककोलकं लवणं च एला जातीफलं त्वचम् ।
केसरं मरिचं पत्रं पलिकान्युपकल्पयेत् ।। वराया * विंशतिर्दााः पलाना पश्चविंशतिः।।
पिप्पलीनां तु कुडवं स्थापयेद् घृतमाजने । वाकुच्या द्वादशपलान्यष्टद्रोणेऽम्भसः पचेत् ।
मासाध्वं पिबेन्मात्रामपेक्ष्याग्निबलाबलम् ।। द्रोणशेषे कषाये तु पूते शीते विनिक्षिपेत् ॥ सर्वकुष्ठहरो ह्येष पांडुहद्रोगकासनुत् ।
* “वचाया.” इति पाठान्तरम् । । कृमिग्रन्ध्यर्बुदप्रन्थिगुल्मप्लीहोदरान्तकृत ॥
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