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भारत-भैषज्य-रत्नाकरः
[अकारादि
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अथाकारादिकषायप्रकरणम् (८७७८) अग्निमन्थकषायः
(८७८१) अकोटादिकाथः (ग. नि. । प्रमेहा. ३०)
(व. से. । ग्रहण्य. बालगे.) भग्निमन्थकषायं तु वसामेहे प्रयोजयेत् ॥
अङ्कोटमूलं धातक्यो बिल्वपेशी महौषधम् ।
क्वयितं शीतलं पेयं कुक्षिरोगहरं परम् ॥ अरनीका क्वाथ बसामेहको नष्ट करता है।
__अंकोटकी जड, धायके फूल, बेलगिरी और (८७७९) अङ्कोटमूलयोगः (१) सोंट समान भाग लेकर क्वाथ बनाकर ठंडा करके ___(व. से. । विषा.)
पीनेसे पेटके विकार ( अतिसार, ग्रहणी आदि)
नष्ट होते हैं। अङ्कोटोत्तरमूलोत्थं कषायस्य पलद्वयम् ।
(८७८२) अजगन्धादियोगः सर्पिपश्च पलं पीतमळविषनाशनम् ॥
(यो. चि. म. | अ. ७)। ___ अंकोटको जड़की छालके १० तोले क्वाथमें |
पलार्द्धमजगन्धाया अष्टयामोषितं जले । ५ तोले घी मिलाकर पीनेसे पागल कुत्तेका विष | वर्तयित्वा पिबेत्मावईन्ति दाहं सवातकम् ।। नष्ट होता है।
___ २॥ तोले अजमोदको पानीमें भिगोदे और (८७८०) अङ्कोटमूलयोगः (२) आठ पहर (२४ घंटे) बाद छानकर पीलें । यह (व. से. । विषा.)
पानी दाह और वायुको नष्ट करता है । अङ्कोटमूलं नि:क्वाथ्य सफाणितघृतं लिहेत । (८७८३-८४) अतिबलादिकाथः तैलाक्तः स्विन्नसर्वाङ्गो गरदोषविषापहम् ।।
(व. से. । मूत्रकृच्छ्रा .) ___ शरीर पर तेलकी मालिश करके स्वेदित कर
कषायोऽतिबलामूलसाधितोऽशेषकच्छूजित् ।
पीतश्च त्रपुसीबोज सतिलाज्यं पयोन्वितम् ।। नेके पश्चात् अंकोटकी जड़के क्वाथमें फाणित
____ अतिबला (खरैटी) की जड़ का क्वाथ हर (राब) और घी मिलाकर चाटनेसे गर विष नष्ट हो
तरहके मूत्रकृच्छूको नष्ट करता है।
___खी रके बीज और तिलोंको पीसकर उसमें क्वाथको पुनः पकाकर चाटने योग्य गाढ़ा घी और दूध मिलाकर पीनेसे भी मूत्रकृच्छू नष्ट कर लेना चाहिये।
' होता है।
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