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आयुर्वेद में भृङ्गकल्प, शाल्मलि कल्प, हरीतकी कल्प, दन्तीकल्प, सोमराजी कल्प, रुदती कल्प, भल्लातक कल्प, निर्गुण्डी कल्प, लोहकल्प और गोक्षुर कल्पादि अनेक उत्तमोत्तम प्रयोग हैं परन्तु इस रससे उत्तम कोई भी नहीं है ।
(९४७९) कस्तूरीरस:
(र. का. . । पाण्ड्वा. )
लोहरजो गिरिजारज ईशरजो मृगजरेणवो वृद्धाः । क्रमतः खल्वे पिष्टाः कणाद्भिभविता दिवसम् ।। कृत्वा गोलममीषां शुष्कं यत्रे प्रवेश्य कच्छप |
नाशनोऽलवणचजाम् ।
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कृतमुद्रं मृलितं सिकता
यन्त्रे पचेत् त्रिदिनम् ॥ मन्दाग्निना सुशीतायन्त्रादुद्धृत्य मेलयेन्मृगजैः । षोडशमगधामधुभिरनुपानं सर्वरोगेषु ॥ कस्तूरीरससो जरारुजां
अतिवृष्यो बाजी कृत्
भारत-भैषज्य रत्नाकर:
ोधी कामिनीवशकृत् ॥
लोह भस्म १ भाग, शुद्ध गंधक २ भाग और शुद्र पारद ३ भाग लेकर सबको एकत्र खरल करके १ दिन पीपल के क्वाथमें घोटकर, गोला बनाकर सुखा लें । तदनन्तर पानी से भरी हुई कढ़ाई में मिट्टी का कुंडा रखकर उसके बीच में भीगी हुई मिट्टीसे एक कुंडाला बनावें और उसमें वह गोला रखकर उसे लोहेकी कटोरीसे ढक कर
[ ककारादि
। सन्धिको अच्छी तरह बन्द कर दें तथा उस कटोरीको रेतीसे ढक दें। अब इस यन्त्रको बालसे भरी हुई अच्छी बड़ी हण्डी में रखकर ३ दिन तक मन्दानि पर पाक करें | रेती कढ़ाईके किनारों तक आजानी चाहिये परन्तु यह ध्यान रखना चाहिये कि रेती पानी में न गिरे । यदि पानी सूख जाय तो और डाल देना चाहिये ।
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तदनन्तर उसके स्वांग शीतल होने पर निकाल कर उसमें ४ भाग कस्तूरी मिलाकर खरल करके रखे ।
इसे यथोचित मात्रानुसार १६ काली मिर्चों के चूर्ण और मधुके साथ सेवन करने और लवण रहित आहार करनेसे जराव्याधिका नाश जाता है | यह अत्यन्त वृष्य, वाजीकर और क्षुधावर्धक है ।
(९४८०) काञ्चनपोटलीरसः
( रं. चि. म. । स्त. ७ )
शुद्धवर्णसुवर्णस्य गाल्य गद्याणको दश । तेषां स्वच्छानि पत्राणि कण्टवेध्यानि कारयेत् चूर्ण सुवर्णमाक्षीकं दशगचाणकं स्मृतम् । काञ्चनारतरोर्मूलत्वचं श्रीखण्डमर्दितम् || तेन स्वर्णस्य पत्राणां लेपो देयश्च सर्वतः । शरावे तानि वै क्षिप्त्वा मृदा वस्त्रेण लेपयेत् || इस्तमात्रां समाधाय गर्ती बन्योपलेभृताम् । तद्गर्भे सम्पुटं मुक्त्वा वहिं क्षिप्त्वा मदीपयेत् ॥ न म्रियते पुटैकेन तदा देयं पुटद्वयम् म्रियते हेमपत्राणि कर्तव्यो नैव संशयः ॥
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