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भारत-भैषण्य - रत्नाकरः
जीरा, पाठा, नागरमोथा, पीपल, पीपलामूल, चव, चीतामूल, सोंठ, कटेली और हल्दी समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
(८८११) अभयादिचूर्णम् (ग. नि. । ग्रहण्य. ३ )
अभयाऽतिविषा शुण्ठी वचा मुस्तं कणाशिफा ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे प्रवृद्ध बिडादिलवणं वह्निः कुष्ठं दारु समांशतः ॥ पुराना त्रिदोषज शोथ, नष्ट होता है । सुश्लक्ष्णचूर्णमेतेषां भक्षितं तप्तवारिणा । श्लेष्मजां ग्रहण हन्ति पक्वामामां सदाऽचिरात् ॥
( मात्रा - ३ - ४ माशे । )
अथवा चिरायते और सटका चूर्ण या क्वाथ सेवन करने से भी शोथ नष्ट हो जाता है।
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(८८०९) अतिविषादिचूर्णम्
( यो. र. । रक्तातिसारा. ) सक्षौद्रातिविषां पिट्वा वत्सकस्य फलं त्वचम् । तण्डुलोदकसंयुक्तं पेयं पित्तातिसारनुत् ||
अतीस, इन्द्रजौ और कुड़ेकी छाल समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे शहद में मिलाकर चावलोंके धोवनके साथ सेवन करने से पित्तातिसार नष्ट होता है।
( मात्रा -- १ - १ ॥ माशा । ) (८८१०) अभया दिकल्कः ( वृ. मा. | हिक्काश्वासा. )
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अभयानागरकल्कं पुष्करयावशुकमरिचकल्कं वा तोयेनोष्णेन पिवेद्धिकी श्वासी च तच्छान्त्यै
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हर्र और सोंठ समान भाग लेकर पानीके साथ पीसकर कल्क बनायें अथवा इसी प्रकार पोखरमूल, जवाखार और काली मिर्चका कल्क बनावें ।
ये प्रयोग हिचकी और श्वासको नष्ट करते हैं । ( मात्रा - ३-४ माशे । ) अनुपान - उष्ण जल ।
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[ अकारादि
हर्र, अतीस, सोंठ, बच, नागरमोथा, पीपलामूल, बिडलवण, सामुद्र लवण, उद्भिद लवण, चीता, कूठ और देवदारु समान भाग लेकर चूर्ण बनावें ।
इसे उष्ण जलके साथ सेवन करनेसे पक्व और साम कफज ग्रहणी रोगका शीघ्र ही नाश हो है।
( मात्रा - २ - ३ माशे । ) (८८१२) अभयायोगः (१) ( यो. र. । रक्तपित्ता ; वृ. मा. । रक्तपित्ता. ) अभयामधुसंयुक्ता पाचनी दीपनी मता ।
मार्ण रक्तपित्तं च हन्ति शूलातिसारजित् ।। शहद के साथ मिश्रित हर्रका चूर्ण पाचन, दीपन, कफ और रकपित्त नाशक एवं शूल और अतिसारको नष्ट करनेवाला होता है ।
(८८१३) अभयायोगः (२) (ग.नि. । अजीर्णा. ५ )
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विदयते यस्य तुक्तमात्रं दह्येत हृल्कोटगलं च यस्य । द्राक्षासिता माक्षिकसम्प्रयुक्तां
sai वै स सुखं लभेत ॥