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ककारादि-तैल
(२६७)
__ कूठ, हींग, बच, देवदारु, सोया, सोंठ और पाके सत्यवतार्य कल्कसहित सेंधानमकके कल्क तथा बकरे के मूत्रमें पकाया | धान्ये द्विपक्षं क्षिपेत् ॥ हुआ तैल पूतिकर्णका नाश करता है। | तत्क्षीरान्नाशिना पीतं लिप्तं कुष्ठकुलान्तकम् । [८७८] कुष्ठराक्षस तैलम् (भै. र. कुष्ठे) | सुप्तं दाहजमश्वेतं रूपमूलश्च लुम्पति ॥ सूतकं गन्धकं कुष्ठं सप्तपर्णश्च चित्रकम् । २ सेर बाबचीको ३२ .सेर पानीमें पकायें सिंदूरश्च रसोनश्च हरितालमवल्गुजम् ॥ | जब चौथा भाग बाकी रहे तो उतार कर उसमें आरग्वधस्य बीजानि जीर्णतान मनःशिला। १० तोला गन्धक और २५-२५ माश पारद प्रत्येकं कर्षमेतेषां कटुतैलं पलाष्टकम् ॥
तथा कान्तिसार लोहकी पानके रसमें घोटी हुई साधयेत्सूर्यतापेन सर्वकुष्ठविनाशनम् ।
कजली और २ सेर तिलका तैल मिलाकर पकावें। श्वित्रमौदुंबरं कच्छू मांसद्धिं भगन्दरम् ॥
जब पानी जल जाय तो तेलको उपरोक्त कल्क के विचर्चिकाञ्च पामानं वातरक्त सुदारुणम् ।
साथ ही किसी बरतन में भरकर अनाज के ढेर में गम्भीरश्च तथोत्तानं नाशयेघस्सम्रक्षणात् ।।
| दवा दें और १ मास बाद निकालकर काममें लावें। कुष्ठराक्षसनामेदं सावर्ण्यकरणं परम् ।
___इसे पीने और मालिश करने से काला सुप्त अश्विभ्यां निर्मितं घेतल्लोकानुग्रहहेतवे ॥
| (सुन्न बहरी) कोढ़ और दाह से उत्पन्न हुवा कोढ़ पारा, गन्धक, कूठ, सतौना, चीता, सिंदूर, |
नष्ट होता है।
| पथ्य-दूध भात । ल्हसन, हरताल, बाबची, अमलतासके बीज, पुराना
| [८८०] अष्टादितैलम् १) ताम्बा और मनसिल । प्रत्येक १४-१। तोला ।
__ (वृ. यो.त. । ९३त.) _इनके ककसे सूर्य ताप द्वारा १ सेर कड़वा
कुष्ठं श्रीवेष्टकोदीच्यं सरलं दारुकेशरम् । तैल सिद्ध करें । (तेलमें चार गुना पानी और यह
अश्वगन्धाजगन्धे च तैलं तैः सार्वषं पवेत् ॥ सब चीजें मिलाकर धूपमें रख दें जब पानी खुश्क |
सक्षौद्रं मात्रया तस्मादूरुस्तम्भादितः पिबेत् ॥ हो जाय तो तेलको सिद्ध समझें)।
कूठ, श्रीवेष्ठक (धूप सरल) सुगन्ध बाला, ___ यह तेल सफ़ेद कोढ़, औदुम्बर, कच्छू, मांस- | सरल काष्ठ, देवदारु, केसर, असगन्ध और बनवृद्धि, भगन्दर, विचर्चिका, पामा और गम्भीर तथा तुलसी के साथ सरसों का तेल पकावें । उत्तान भयंकर वातरक्त का नाश करता है तथा | इसे यथोचित मात्रानुसार शहद मिलाकर त्वचाके रंगको स्वभाविक कर देता है । | पीने से उरुस्तम्भ का नाश होता है। [८७९] कुष्ठविद्रावणतैलम् (र.र.स.अ.२०) [८८१] कुष्ठादि तैलम् (२) द्वात्रिंशत्पलबाकुचीशृतजलद्रोणांनिशेषे चतु- (कृ. नि. र. । बा. रो) विंशत्या दनुजस्य कांतरसयो. तैलमभ्यंजने कार्य कुष्ठे सर्जरसे तथा।
निष्कैः पृथपंचभिः। | पलं कषायं नलदे तथा गौरकदंबके ॥ तांबूलीरसमर्दितैस्तिलभवप्रस्थं शृतं चिक्कणे ___ मालिशके लिए कूठ, राल, जटामांसी और
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