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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org भारत-रत्नाकर (१०८) का उपाय लिखता हूं-पावभर कलमी सोरेका चूर्ण और पावभर गुड, दोनों में थोड़ा पानी डाल कर मर्दन करलें, इसमें आधासेर शुद्ध अभ्रक मिलाकर एक हांड़ी में भरदें और हांडीकी मुद्रा करके सर्वार्थक भट्टी की लोहजाली पर अथवा कषायकरी भट्टी की लोहजाली पर पांचसेर पत्थर के कोयले रखकर हांडी को रख दे, और नीचे लकड़ी की आंच जलाकर कोयलों को सुलगाले । तेज अग्नि के कारण जो हांडी से आवाज़ करती हुई अग्नि निकले तो कुछ भयकी बात नहीं है क्योंकि तेज अग्नि लगने से सोरा उड़कर जा रहा है । कभी २ हांडी अग्नि को सह जाती है तो सोरा नहीं भी उड़ता है । इस रीति से एक ही बार में बहुत आसानी और कम खर्च के साथ अभ्रक निवन्द्र हो जाती है । कदाचित् सोराके उड़ जाने से हांडी के ऊपर के भाग की अभ्रक में कुछ २ चमक दीख पड़े तो उतने भाग को निकाल कर पूर्व की तरह गुड़, सोरा में रखकर एक पुट और दे, छुट्टी । इस निश्चन्द्र अभ्रक में सोरा मिला हुआ है इस लिये इसको कूटकर दोपहर तक जलमें भिगो दे फिर हाथ से खूब मल डाले । जब पानी स्थिर हो जाय और अभ्रक पात्रके पेंवें में जमजाय तब धीरे २ होशियारी के साथ पानी को गिराने जिससे अमी में वह जाय । फिर पानी भरके छोड़ रे । इसी तरह बराबर पानी गिराता जाय जब तक कि वह जिह्वापर खारी लगे । पुटत्रयेणापि पिपर्ति योगान् बिभर्ति कायं खलु केवलञ्च ॥ प्रथम कही हुई रीति से अभ्रक को निश्चन्द्र करके मंदार के पत्तों के स्वरस में घोटकर टिकिया ना । जब टिकिया खूब सूख जाय सब गजपुट में अथवा सर्वार्थकरी भट्टी के तल भाग में सम्पुट को रखकर फूंक दे । ऐसे तीन पुट देने से लाल वर्ण की अभ्रक भस्मं बनेगी । इस भस्म को जिस रोग के योग में डालेंगे उसका गुण पूर्ण होगा । और केवल इस अभ्रक भस्म को मधु के साथ या पान में रख कर खाने से श्वास कास ज्वरादि अनेक रोग दूर हो जायगे और यदि अच्छा आदमी स्वायेगा तो ताकत बढेगी और अनेक रोगों से बचा रहेगा । Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [३०६] मृतोत्थापनाभ्रक भस्म (रसा. सा.) कृष्णेन मल्लेन च हिङ्गुलेन समानमानेन चतुर्थभागम् । निवन्द्रमभ्रं परिमर्दयेत दवाssसर्व संपुटके च रुद्ध्वा ॥ वनोपलङ्गारघृतं पचेत तथा यथोद्गच्छति नेह मल्लः । पुनर्विमर्धापि पुनः पचेत एव [३०५] अभ्रकस्य नित्योपयोगि भस्म पुनर्यथापूर्वमिदं विमर्ध (रसा. सा.) पूर्वोक्तरीत्योक्तिचन्द्रिकाभ्रं मन्दारपत्रोद्भववारिणापि । दवा च दयापुनरासवं तम् ॥ कुर्यादुपविशवा नुत्थापयेचानु विशुद्धयुग्मम् ॥ For Private And Personal Use Only पचेत यावच्छत वारपाकाः ॥ कन्याद्रवेणानु विवर्ध सम्यक् विधाय चक्रीश्च पुटेद्गजाख्ये ।।
SR No.020114
Book TitleBharat Bhaishajya Ratnakar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagindas Chaganlal Shah, Gopinath Gupt, Nivaranchandra Bhattacharya
PublisherUnza Aayurvedik Pharmacy
Publication Year1985
Total Pages700
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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