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• अर्चयस्व हृषीकेशं यदीच्छसि परं पदम् .
[संक्षिप्त पापुराण
एक ही अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर कमलका तुम्हारे देवता हैं, इसीलिये तुम्हें वैष्णवी कहते हैं। देवि ! दान करता है, वह वैश्वानरलोकमें जाता है। इसे तुम जन्मसे लेकर मृत्युतक समस्त पापोंसे मेरी रक्षा 'अग्निव्रत' कहते हैं। जो प्रत्येक दशमीको एक ही करो! स्वर्ग, पृथ्वी और अन्तरिक्षमें कुल साढ़े तीन अन्नका भोजन और वर्ष समाप्त होनेपर दस गौएँ तथा करोड़ तीर्थ हैं, यह वायु देवताका कथन है। माता सोनेका दीप दान करता है, वह ब्रह्माण्डका स्वामी होता जाह्नवी ! वे सभी तीर्थ तुम्हारे भीतर मौजूद हैं। है। इसका नाम 'विश्वव्रत' है। यह बड़े-बड़े पातकोंका देवलोकमें तुम्हारा नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके नाश करनेवाला है। जो स्वयं कन्यादान करता तथा सिवा दक्षा, पृथ्वी, सुभगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, दूसरेकी कन्याओंका विवाह करा देता है, वह अपनी विद्याधरी, महादेवी, लोक-प्रसादिनी, क्षेमा, जाह्नवी, इक्कीस पीढ़ियोंसहित ब्रह्मलोकमें जाता है। कन्या-दानसे शान्ता और शान्तिप्रदायिनी आदि तुम्हारे अनेकों नाम बढ़कर दूसरा कोई दान नहीं है। विशेषतः पुष्करमें और हैं।'* जहाँ स्नानके समय इन पवित्र नामोंका कीर्तन वहाँ भी कार्तिकी पूर्णिमाको, जो कन्या-दान करेंगे, होता है, वहाँ त्रिपथगामिनी भगवती गङ्गा उपस्थित हो उनका स्वर्गमें अक्षय वास होगा। जो मनुष्य जलमें खड़े जाती हैं। होकर तिलको पीठीके बने हुए हाथीको रलोंसे विभूषित सात बार उपर्युक्त नामोंका जप करके सम्पुटके करके ब्राह्मणको दान देते हैं, उन्हें इन्द्रलोककी प्राप्ति आकारमें दोनों हाथोंको जोड़कर उनमें जल ले। तीन, होती है। जो भक्तिपूर्वक इन उत्तम व्रतोंका वर्णन पढ़ता चार, पाँच या सात बार मस्तकपर डाले; फिर विधिपूर्वक
और सुनता है, वह सौ मन्वन्तरोंतक गन्धर्वोका स्वामी मृत्तिकाको अभिमन्त्रित करके अपने अङ्गोंमें लगाये। होता है।
अभिमन्त्रित करनेका मन्त्र इस प्रकार हैसानके बिना न तो शरीर ही निर्मल होता है और अश्वक्रान्ते रथकान्ते विष्णुकान्ते वसुन्धरे। न मनकी ही शुद्धि होती है, अतः मनकी शुद्धिके लिये मृत्तिके हर मे पापं यन्पया दुष्कृतं कृतम् ।। सबसे पहले स्नानका विधान है। घरमें रखे हुए अथवा उद्धृतासि वराहेण कृष्णेन शतबाहुना । तुरंतके निकाले हुए जलसे स्नान करना चाहिये। [किसी नमस्ते सर्वलोकानां प्रभवारणि सुव्रते ॥ जलाशय या नदीका स्नान सुलभ हो तो और उत्तम है।]
(२०।१५५. १५७) मन्त्रवेत्ता विद्वान् पुरुषको मूलमन्त्रके द्वारा तीर्थकी 'वसुन्धरे ! तुम्हारे ऊपर अश्व और रथ चला करते कल्पना कर लेनी चाहिये। 'ॐ नमो नारायणाय'- है। भगवान् श्रीविष्णुने भी वामनरूपसे तुम्हें एक पैरसे यह मूलमन्त्र बताया गया है। पहले हाथमें कुश लेकर नापा था। मृत्तिके ! मैंने जो बुरे कर्म किये हों, मेरे उन विधिपूर्वक आचमन करे तथा मन और इन्द्रियोंको सब पापोंको तुम हर लो। देवि ! भगवान् श्रीविष्णुने संयममें रखते हुए बाहर-भीतरसे पवित्र रहे। फिर चार सैकड़ों भुजाओंवाले वराहका रूप धारण करके तुम्हें हाथका चौकोर मण्डल बनाकर उसमें निम्नाङ्कित जलसे बाहर निकाला था। तुम सम्पूर्ण लोकोंकी वाक्योंद्वारा भगवती गङ्गाका आवाहन करे-गङ्गे ! तुम उत्पत्तिके लिये अरणीके समान हो। सुव्रते ! तुम्हें मेरा भगवान् श्रीविष्णुके चरणोंसे प्रकट हुई हो; श्रीविष्णु ही नमस्कार है।'
*विष्णुपादप्रसूतासि वैष्णवी विष्णुदेवता । पाहि नस्त्वेनसस्तस्मादाजन्ममरणान्तिकात् ॥ तिनः कोट्योऽर्द्धकोटी च तीर्थानां वायुरप्रवीत् । दिवि भूम्यन्तरिक्षे च तानि ते सन्ति जाह्रवि ॥ नन्दिनीत्येव ते नाम देवेषु नलिनीति च । दक्षा पृथ्वी च सुभगा विश्वकाया शिवामृता ॥ विद्याधरी महादेवी तथा लोकप्रसादिनी । क्षेमा च जाह्नवी चैव शान्ता शान्तिप्रदायिनी ॥
(२०। १४९-१५२)